Sunday, November 11, 2012

अमराई



अमराई में अब तो अम्बियां दीखने लगी होंगी मुझे तुम याद आये कोलाज़ की तरह बेतरतीब स्मृतियां-

अम्बियों और कैरियों के पीछे मेरी दीवानगी और तुम्हारे गुलेल के निशाने की परीक्षा। मैंने पूछा मैं जो अम्बियां कहूं तुम गुलेल से तोड़ दोगे, तुमने ये नहीं कहा ये तो मेरे बाएं हाथ का काम है (फिल्म शोले की तरह) गाँव की गलियों में घूमती किसी पागल लड़की की तरह चलती, जेठ के तप्त झोंकों से लहराते मेरे सूखे बालों के बीच छिपते-निकलते चेहरे की तरफ देखकर तुमने पूछ ही लिया, तुम्हें क्या पसंद है। कैरियां, टिकोरे या सुग्गों के जूठे किये मीठे आम (शबरी के बेरो की तरह) मैं तो आज तक तय नहीं कर पाई अम्बियां, कैरियां या टिकोरे।

तुमने वादा किया आने का इस शर्त के साथ कि गुलेल के लिए गोल-गोल पत्थर मैं चुन कर लाऊं, छोटी पहाड़ी से निकले बरसाती नाले की रेत से चुनकर, मैं पूरी दोपहर चुनती रही गोल चिकने पत्थर, जलती रेत में नंगे पांव, जूतियाँ नहीं पहनी, मां पूछती इतनी दोपहर में कहा? तो पकड़ी जाती। पावों के छालों के साथ, भर ली फ्राक की दोनों जेबें, अब कहूँगी तोड़ो अम्बियां इन कंकरों से, जब तक खाली जेबें न भर जायें कसैली खट्टी कैरियों से और हां मुट्ठी में छुपाकर एक चुटकी नमक साथ लाई, कैरियों के साथ तुम्हें परोसने के लिए, गिनती रही उंगलियों के इशारे से अम्बियां, जब आओगे उंगलियों से दिखाकर कहूंगी वो वाली, नहीं उसके साथ वाली, इस तरह तुम्हें परेशान कर दूंगी, तुमने भी तो यही किया, अब तक मैं गिनती रही कैरियां, सुनती रही कोयल की बेसब्र कूक और देखती रही हारिलों का फुदकना, सुग्गों की लाल, चोंच हरी कैरियों के बीच।

तुम नहीं आये।

सूरज आ गया उस कोने के सबसे घनेरे आम की फुनगी से नीचे, तुम नहीं आये। उकता कर मैं चली आई, घाट पर फेंकने लगी सारे गोल कंकर, जतन से सहेजे हुए, तुम्हारी गुलेल के लिए जो भरे थे फ्राक की जेबों में कल से। हर कंकर से कांप जाती पानी की सतह और थरथराती लहरें,जैसे मेरे मन में उठ रही हो, ऊभ-चूभ होती मेरी उम्मीदों की तरह, पर तुम नहीं आए, मुट्ठी में बंद नमक पसीज कर फैलने लगा। आखिरी कंकर फेंककर धो ली मैंने हथेलियां और देर तक देखती रही, अपने को पहचानने की कोशिश में फैलती लहरों के साथ, धुंधलाता अपना ही अक्स, तब से मैंने अम्बियां खाई ही नहीं अब तक, यह जानकर कि उस पूरी दोपहर तुम बावरे से भागते रहे बोहार बन में फाख्ताओं के पीछे। जब तक अमराई में चिमगादड़ उलटे नहीं लटकने लगे। 

आम की घनी और ठंढी छांव में बिताई दुपहरिया में न जाने कितनी बातें सीखीं तुमसे, सूखे पत्तों के बीच सरसराकर निकलते बड़े से सांप से डर कर तुम्हारी ओर भागी तो तुम्हीं ने बताया पगली ये तो असढि़या है, आषाढ़ का सांप है जिसका जहर सिर्फ आषाढ़ में मारक होता है और देखो इस साल दो आषाढ़ हैं, पुरुषोत्तम मास और यह भी कि शास्त्रों में कहा गया है- मिट्ठू और गिलहरियों के काटने से फल और बछड़े के पीने से दूध कभी जूठा नहीं होता, सर्प और फल के ये गुण जानती तो तुम्हारी ओर डर से नहीं भागती, आदम-ईव की कहानी तो बाद में पढ़ी, काश ये जान लेती उस दुपहरिया में ईडन के बाग, सांप और निषिद्ध फल का पुराण और तुम्हें भी, मैं तो जान ही नहीं पाई, प्रकृति विज्ञान और शास्त्रों के ज्ञाता तुम, मेरे भी मन को क्यों नहीं पढ़ पाए या जान-बूझकर अजाने बने रहे  मैं तो आज तक ये समझ ही नहीं पाई उस दिन की बीती दुपहरिया जैसे कितने साल बीत गए, अब आसपास ना अमराई है, न तालाब, न बरसाती नाला, खिड़की से दिखने वाला भी आसमान धुआं-धुआं हो चला है और मैं तो अब तक भी तय ही नहीं कर पाई, अम्बियां, कैरियां या टिकोरे/कोयल, हारिल या चिमगादड़ या फाख्ते, कौन है जो मुझे खींच लेता है बार-बार अमराई में।

अब तो आ ही गई होंगी अम्बियां अमराई में

Friday, October 12, 2012

विक्रमार्क, चुनाव, वेताल

आ गए चुनाव
वेताल को पेड़ पर लटका छोड़
चल दिया विक्रमार्क
बैनर और पोस्टर टांगने
समदर्शी होकर
क्या फर्क पड़ता है
अगर कहीं पंजा कमल को दबोचता है
कही हाथी दोनों को कुचलता है
हाथी पे भारी है
सायकिल की सवारी
हंसिया काटता है
जरखेज जमीनों की बीमार फसल
और हथौड़ा अन्धों की तरह सबको कूटता है
लालटेन, किरासन की कतार में खड़े-खड़े बुझ रही है
ग्रास रूट की हरी-भरी फसल को बाड़ खुद चर रही है
राष्ट्रवादी पार्टी क्रिकेट के मैदान पर खड़ी
कभी बाउंसर कभी गुगली फ़ेंक रही है
नई-नई पतंगें परवान चढ़ रही हैं
अन्ना की टोपी उतर रही है
आम आदमी (?) के सिर चढ़ रही है
क्या करे विक्रमार्क
सिर्फ कहानियों से घर थोड़ी चलता है
तलवार किराने दुकान में गिरवी पड़ी है
वेताल की कथाएं
अब अप्रासंगिक हो चली हैं
पर अब भी इंतज़ार कर रहा है
विक्रमार्क का

Thursday, September 27, 2012

परिंदे ऐसे आते हैं


आज सुबह जब आंख खुली

रात की आलस धुली
मैंने पाया
मैं चिड़िया बन गया हूँ
तोता, मैना, कलहंस
या बुलबुल
या उकाब
नहीं जनाब
महज एक कठफोड़वा
सोचा घूम आऊं ब्रश करके
लेकिन वहां तो थे ही नहीं दांत
ठकठकाने लगा एक शाख
चोंच साफ हो न हो छेद कर पाने पर
जम तो जाएगी धाक
किस्मत की बात है
मिल जाएँ कीड़े और इल्लियाँ
छाल की दरार में मकड़ियाँ
नाश्ता तो जरुरी है
छूट गए हाथ और दांत
पर डैनों और पंजों के साथ भी
यही दुःख है
साथ तो है ही पेट
और पेट के साथ
भूख है

Thursday, September 6, 2012

तितलियाँ :मरी हुई

तार के स्टैंड से
छिदी-बिंधी
रसीदें और रुक्के
इनके बीच भिंचा
तुम्हारी यादों के हिसाब का
गुलाबी पन्ना
जिसका सिर्फ एक कोना
बाहर झांक रहा है
देने - पाने के पुर्जे
बढ़ते-बढ़ते
छत से लटके
बल्ब के ठीक नीचे तक जा पहुँचे हैं
जहाँ रोज रात एक दुमकटी छिपकली
तितलियों
और
जुगनुओं का
शिकार किया करती है

मई 1976 की किसी रात

Tuesday, August 28, 2012

आम बनाम बबूल

सपने हंसते हैं

सपने रोते हैं

सपने सच भी होते हैं

अक्सर उनके

जो सिर्फ

बबूल बोते हैं 

Friday, August 10, 2012

घाट

पेड़
तालाब का पार
उससे बंधा पानी
किनारे
यहाँ वहाँ
घाट
वही है
शुरू से
हर बार सिर्फ
बदल जाती है
लाश
कुछ कंधे
सब कुछ ऐसा ही
चलता है
एक बंधे बंधाए 
क्रम के साथ
.........................
क्रमानुसार
लोग आयेंगे
मेरे भी पीछे
पांत पांत
सिर्फ वापसी पर
नहीं हो पायेगा
उनसे मेरा साथ  

04.10.1988
चित्र गूगल से साभार 

Monday, July 30, 2012

सार्थक -निरर्थक

प्यार के गहनतम क्षणों में
तुम्हारे
और
मेरे बीच कुछ शब्द होते हैं
जो एक सेतु बनाते है
मुझे तुम तक
और
तुम्हे मुझ तक पहुँचाने केलिए
फिर सेतु विलीन हो जाता है
शब्द निरर्थक हो जाते है
और अगर हमारे बीच
कुछ शेष रहता है तो

तुम्हारा अर्थ ... ... ... केवल मै
मेरा अर्थ ... ... ... केवल तुम


यह रचना जरुरत ब्लाग के मेरे बालमित्र और सहपाठी श्री रमाकांत को समर्पित, जिनके आग्रह और हठ पर एक दूसरा पोस्ट अधूरा छोड़ कर यह श्रृंगार रस से लटपटाया यह पोस्ट प्रकाशित करना पड़ा.

Saturday, July 28, 2012

होना न होना

बहुत कुछ हो सकता था
कुछ नहीं हुआ
शापग्रस्त नहीं था मै
मेरे हिस्से
नहीं थी
एक भी
दुआ

Thursday, July 19, 2012

पुतलियां

कहां का रास्‍ता पूछते हैं
कहां जा रहे हैं
मल्‍हार
अब वहां खामोश हें सारे राग
कोई नहीं छेड़ता तान
न कोई लेता आलाप
कुछ मूर्तियां हैं
खड़ी रहती हैं चुपचाप
पुरातत्‍व के चौकीदार की
नजर बचाकर
ऊंघती हैं
या मार लेती हैं
झपकी एकाध
कभी-कभार
परली ओर के गांव में
चौमासे-छमासे
बजती है दुंदुभी
आदमी लड़ते हैं चुनाव
करते हैं नोंच-खसोट
एक-दूसरे का खून देख कर
होते हैं शांत
तब मूर्तियां सिर धुनती हैं
नोचती हैं बाल.
15.07.1993

नाच कठपुतली
नाच
जितना हो सके
जीवन ले
बांच
डोर का खिंच जाना तो
तय है
अक्‍सर यह होता
असमय है.
05.04.1992

Sunday, June 17, 2012

सबरिया

छत्तीसगढ़ के रायगढ़-बिलासपुर अंचल के निवासी ''सबरिया'' वस्तुतः कौन है? ठीक-ठीक कोई नहीं जानता। नृतत्वशास्त्री, न समाजशास्त्री, न शासकीय विभाग और न खुद सबरिया। समय के साथ-साथ नदी के किनारों से मैदानों की ओर बढ़ते सबरियों की पहचान, आज धुंधली पड़ गई है। इसके सिर्फ दो ही उपादान शेष हैं जो इनके मूल स्थान और पहचान की ओर संकेत कर सकते हैं। प्रथम, उच्चारण में थोड़े अंतर के साथ ये तेलुगु बोलते हैं और अपने साथ हमेशा लोहे का मोटा डंडा, सब्बल लिए रहते हैं। इनकी बसाहट से यह भी स्पष्ट है कि ये इस क्षेत्र में महानदी के साथ चलते-चलते प्रवेश कर गये, वे किस प्रयोजन से यहां आये इसका प्रामाणिक और सही जवाब शायद महानदी ही दे सकती है। काश! यह बोलती होती।

सबरियों का अपना कोई लिखित दस्तावेज नहीं है अतः अपनी पहचान के लिए दूसरों पर निर्भर हैं और इनको पहचानने के प्रयास गंभीर स्तर पर नहीं हुए। कुछ शोध निबंध सबरिया जाति पर आधारित है पर इस मूल प्रश्न का कि सबरिया आखिर हैं कौन, सभी मौन हैं। सरकारी खानापूरी इतने से ही हो जाती है कि इनकी जनसंख्‍या कितनी है और इन्हें मिलाकर आदिवासियों की जनसंख्‍या का प्रतिशत कुल जनसंख्‍या में कितना है। शासन ऐसे कुछ मामलों में आंकड़ों को इतना महत्व देता है कि आदमी उसके पीछे छिप जाता है। आवश्यकता पड़ने पर पुलिस की डायरियां और तहसील कार्यालय इन्हें गोंड मानकर काम चला लेते हैं। कभी-कभी तो इन्हें सिर्फ आदिवासी बता देना ही पर्याप्त समझा जाता है।

सबरिया, शासकीय अनुसूची की जाति/जनजाति में शामिल नहीं है। इस अंचल की जाति/जनजाति पर तैयार सर्वाधिक प्रामाणिक पुस्तक ''ट्राइब्स एण्ड कास्ट्‌स आफ द सेन्ट्रल प्राविन्सेस आफ इंडिया'' में रसेल एवं हीरालाल का ध्यान भी इन पर नहीं गया। संभवतः इन्होंने भी सबरियों को अन्य स्थापनाओं की तरह सहरिया या संवरा (शबर) मान लिया है। बाद के अध्ययन-प्रकाशन में लेखकों, शोधकर्ताओं ने इससे इनकार किया है कि संवरा या सहरिया से सबरियों का कोई संबंध है, अलावे नाम में साम्यता के। क्योंकि रहन-सहन, भाषा, शारीरिक गठन, पेशा, धार्मिक मान्यताओं में ये एकदम पृथक हैं। सहरिया मूलतः मुरैना, शिवपुरी, गुना जिलों में पाये जाते हैं। इन्हें पूर्व में अपराधी जनजातियों की सूची में रखा गया था। शबर, मूलतः उड़ीसा के रहने वाले हैं और भाषा आधार पर मुण्डा भाषा परिवार के अंतर्गत हैं जबकि सबरिया, द्रविड़ भाषा परिवार के सदस्य हैं।

छत्तीसगढ़ अंचल के निवासी, पुराने आगन्तुक, ''सबरिया'' नाम से कैसे जाने गए, इसके मुख्‍यतः तीन कारण संभावित है। पहला, जार्ज ग्रियर्सन ने अपने भाषा सर्वेक्षण में छत्तीसगढ़ के इस क्षेत्र में 'शबर' जाति की उपस्थिति दर्ज की है। दूसरा, यह कि एक किंवदंती के अनुसार ये रामकथा की आदिवासी वृद्धा शबरी के वंशज हैं और कहा जाता है कि शबरी ने शिवरीनारायण में भगवान राम को जूठे बेर खिलाये थे। संयोग है कि शिवरीनारायण के आसपास सबरिया जाति की बड़ी जनसंख्‍या निवास करती है। तीसरी मान्यता इनके मूल उपादान, लोहे के डंडे या सब्बल से है। इस कारण सब्बल (छत्तीसगढ़ी-साबर) धारण करने वाला, सबरिया कहलाए। सबरिया अपने इस बहुउपयोगी औजार-उपकरण का इस्तेमाल अत्यंत कुशलता से खोदने, काटने, भारी वस्तु उठाने, शिकार आदि सभी कार्यों के लिए करते हैं।

किंवदंतियों/अवधारणों से परे हटकर और पूर्वाग्रहों से अलग, तार्किक रूप से विचार करने पर इनकी पहचान तो नहीं हो पाती परन्तु पूर्व में उल्लेखित दोनों उपादानों, बोली और सब्बल से इनके मूल स्थान, जीवन शैली और जीवन-यापन के ढंग के बारे में स्पष्ट संकेत मिलता है। साबर या सब्बल एक ऐसा औजार है जिसका प्रयोग, मूलतः खोदने और भारी वस्तुओं के उठाने हेतु उत्तोलक के रूप में सर्वाधिक होता है। इससे यह तो कहा ही जा सकता है कि सबरिया ऐसे कार्य में कुशल रहे हैं जिसका खोदने और भारी वस्तुओं को उठाने से संबंध हो। यानि तार्किक संभावना है कि सबरिया मूलतः खनिक हैं और आंध्रप्रदेश के उस क्षेत्र में निवासी हों जहां इमारती पत्थरों की खदानें रही हों और वहां से वे उड़ीसा होते हुए या बस्तर हो कर छत्तीसगढ़ आए और इनके छत्तीसगढ़ के इस मैदानी भू-भाग, जो अब इनका बसाहट का क्षेत्र है, में प्रवेश, महानदी मार्ग से हुआ। लेकिन दूसरा प्रश्न अभी भी अनुत्तरित है कि जीवन यापन का साधन होते हुए ये अपने मूल निवास स्थान को छोड़कर इस क्षेत्र में क्यों चले आये। इसके लिये महानदी के किनारे बसे प्राचीन नगरों में पाये जाने वाले साक्ष्य की पड़ताल जरूरी है।

महानदी के किनारे पुरातात्विक महत्व के कई सम्पन्न नगरों के अवशेष प्राप्त होते हैं, जिनमें अधिकांशतः पत्थरों की बड़ी-बड़ी सिलों से निर्मित है। एक किवदंती शिवरीनारायण, जांजगीर और पाली के प्राचीन मंदिरों के साथ जुड़ी है, जिनका निर्माण छमासी रात में हुआ, बताया जाता है। चूंकि सबरिया शारीरिक रूप से बलिष्ठ एवं परिश्रमी होते हैं अतः यह माना जा सकता है कि लगभग एक हजार वर्ष पूर्व इन मंदिरों के निर्माण के लिए इन्हें परिवहन और पत्थर की बड़ी-बड़ी लाटों को मंदिर की ऊंचाई पर पहुंचाने हेतु लाया गया होगा। धीरे-धीरे इनकी मिट्‌टी काटने की कुशलता और परिश्रम से इन्हें लगातार काम मिलता गया होगा और आंध्र से आये ये अप्रवासी मजदूर यहीं बस गये होंगे। एक अन्य कथा पर स्वयं सबरिया विश्वास करते हैं कि बहुत पुराने समय में दक्षिण की ओर भयानक दुर्भिक्ष पड़ने के कारण इनके पूर्वज ''जनम देंसु'' (उत्तर दिशा) के राजा के यहां जीवन यापन हेतु चले और वहीं के होकर रह गये।

ये अपना मूल स्थान छोड़कर छत्तीसगढ़, संभवतः ऐसे ही किसी प्रयोजन से आये और यहीं के होकर रह गये। दक्षिण से छत्तीसगढ़ की इनकी यात्रा और तब से अब तक हुए सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन, बीच की विलुप्त कड़ियां हैं। आवश्यकता है, इन विलुप्त कड़ियों को खोजने के गंभीर, ठोस और ईमानदार प्रयास की, ताकि इन्हें अपनी सही और मुक्कमल पहचान मिल सके और उस पहचान की रोशनी में शासन अनुसूचित जाति/जनजाति की सूची में शामिल कर इन्हें अपना जीवन स्तर सुधारने में इस प्रकार सहयोग दे ताकि अपनी मौलिकता बनाये रखते हुए तेलुगूभाषी सबरिया, छत्तीसगढ़ के निवासी बने रह सकें। अगर अब भी ऐसा प्रयास नहीं हुआ तो इनकी धुंधलाती पहचान समय के साथ खो जावेगी।

Tuesday, June 12, 2012

मौत

मौत – 1

मौत
चूहों के लिए
बिल्‍ले की तरह आती है
गुर्राती है
डराती है
खिलाती है/खिझाती है
और थक जाने पर
चट कर जाती है
लोग यूं ही गपशप
कर लिया करते हैं
सुना तुमने
..........................
अच्‍छा!
कब हुआ?
बुरा हुआ!
27.05.1986

मौत – 2

मौत
इन्‍सान के लिए
काली और चमकदार
बिल्‍ली की तरह
आती है और
मौका देख कर
चुपचाप रास्‍ता काट जाती है
.................................
मैं, तुम
यह-वह
झपट कर एक-दूसरे को
भय में साझीदार बनाते हैं
जानते हो.........
घुटी-घुटी
आवाज आती है
कैसे हुआ?
क्‍या सचमुच.
27.05.1986

मौत – 3

दरवाजे पर आहट आई
मौत ने कॉलबेल बजाई
मैं खोल ही पड़ता
उठकर उसका रास्‍ता
कॉलबेल बंद हो गई
चली गई बिजली
बच्‍चा चौंक कर जग गया
फिर बंद ही रह गया
दरवाजा
सुबह होने तक.
15.07.1993

Thursday, April 26, 2012

ईश्वर

मुझे प्रारंभ से ही या यूं कहूं कि किशोरावस्था से ही 'ईश्वर' के अस्तित्व पर संदेह रहा है यानि उस पारलौकिक शक्ति या सत्ता पर, जिसे सामान्य समझ, संदर्भ और चर्चा में ईश्वर कहा या समझा जाता है ...

यह संदेह उस सत्ता पर है जो पूजा-अर्चना करने, किसी निश्चित दिन या वार को इसके विशिष्ट अवतार या रूप के पास जाने, मत्था टेकने, अगरबत्ती धूप या अन्य सुगंधियां जलाने, किसी निश्चित जाति, रंग, किस्म का फूल, वनस्‍पति चढ़ाने या बलि देने पर प्रसन्न हो कर पुरस्कृत करती है और हर रोज या त्यौहारों, जयंतियों और तिथियों पर उसका स्‍मरण/स्‍तुति न करने सांसारिक खुशियां या उपलब्धियां हासिल होने पर निश्चित किस्म, गुणवत्ता या निश्चित मात्रा की मिठाई या भोग प्रसाद के रूप में चढ़ा कर आभार व्यक्त न करने पर अप्रसन्न हो दैहिक और भौतिक तापों से दंडित करती है ...

मेरा, ऐसी किसी भी सत्ता पर प्रारंभ से ही संदेह बना रहा है. अब समय गुजरने के साथ-साथ आयु की परिपक्वता और कई घटनाओं से दो-चार होने के पश्चात्‌ मेरा यह निश्चित और दृढ़ मत है कि ऐसी कोई शक्ति (ईश्वर) जो मानव जीवन को प्रभावित, नियंत्रित या दिग्दर्शित करती है, उसकी लय और ताल की बद्धता, ऊंचाई और गहराई के ग्राफ को निर्धारित करती है सांसारिक दुख और सुख के क्षण उत्पन्न करती है या उसे हर लेती है- कतई अस्तित्वमान नहीं है, और यदि है तो उसका मानव जीवन से कोई आसंग या सरोकार नहीं है ...

जीवन, स्वतंत्र रूप से बिना किसी कार्य-कारण सिद्धांत के, बिना किसी निश्चित चर्या और भविष्यवाणी न की जा सकने वाली घटनाओं के बीच अनिश्चित स्रोतों और संयोगों से अपनी गिज़ा हासिल करता है और अपना रास्ता तय करता है.

Saturday, April 21, 2012

पुनर्नवा

जीना
उन्हीं क्षणों को
फिर-फिर
जिन्हें जिया
होकर अस्थिर
आकृति नई है
पर व्यक्ति परिचित
अथवा
व्यक्ति वही
आकृति परिवर्तित
पर समय न ही
प्रतीक्षा करता
न ही लौटता
कभी
उन्हीं बिन्दुओं पर
फिर

Thursday, April 5, 2012

कनुप्रिया के लिए

मेरे घर आई एक प्यारी परी,
सोचते हैं लोग क्यूं आती है मुझसे मिलने
और मैं क्यूं हो जाता हूं बेचैन उसके बिना
क्यूं याद करता हूं और बातें करता हूं
पूरे दिन, देर रात और सपनों में भी उससे
वो मेरी कोई नहीं, लोग कहते हैं.
मैं उसका कोई नहीं, मैं जानता हूं
फिर क्यूं मुझे अपनी सी लगती है
मेरे लिए इतना क्यूं सोचती है.
मेरी इतनी परवाह क्यूं करती है.
सोचता हूं अक्सर, शायद
पिछले जन्म का कोई रिश्ता हो इसलिए
ईश्वर ने बंधन, बांधने में कोई भूल की इसलिए
मैं जानता हूं
वह मुझसे बेहतर जानती है मेरे बारे में
फिर भी अक्सर कहती है
मानसरोवर तक उड़ने के लिए
अब भी वक्त है
जबकि हम दोनों जानते हैं, वक्त की मार
मुझ पर कितनी सख्त है
फिर भी थके पंखों से एक बार
मानसरोवर तक उड़ने को, मन करता है
उसके लिए एक अंजुरी
खुशियों के मोती चुनने का, मन करता है
उसके साथ एक सपना बुनने को, मन करता है
उसके लिए एक और जिंदगी जीने का, मन करता है.

17/11/1992

Saturday, March 31, 2012

... वह

महसूस करने की जमीन पर थोड़ी-बहुत नमी अब भी शेष है, लेकिन उस पर चिन्ता/चिन्तजन के पत्थर इस तरह लदे हैं कि कुछ कहने या लिख पाने की धारा पूर्व की भांति किसी लघु उत्‍स्फोट के साथ गेसियर की तरह नहीं फूटती वरन इन पत्थरों के बीच किसी उपेक्षित से दरार से रिसने लगती है। पता नहीं यह विस्फोट है या रिसना ...

एक लंबे अरसे बाद कुछ दिनों पूर्व गृहग्राम जाना हुआ। लोगों से मिलते-जुलते और दुकानों से भर गई सड़कों के दोनों किनारों के बीच स्मृतियों की पतली होती जा रही गलियों में से गुजरते हुए चौक के पास एक दृश्य पर निगाह रुकी-
कुछ वर्ष पूर्व की प्राकृतिक सुंदरता भरी कन्या, पांवों के उपर टंगी मुचड़ी सी साड़ी और बोसीदा हालत के साथ, यौवन के समक्ष प्रकट संक्रमण काल में प्रवेश करते, अपने सद्य गत-सौंदर्य को संभालने के असफल प्रयास में, अपनी 4-5 वर्षीय वर्नाकुलर कान्वेंटगामिनी कन्या की उंगली थामे, सड़क के किनारे के ठेले से कुछ सौदा-सुलुफ कर रही थी ...

कुछ पुराने दृश्य याद आए। 7-8 वर्ष पूर्व जब यह गत सौंदर्या सायकल पर कॉलेज के लिए निकलती तब अपने सौंदर्य का अहसास प्रतिपल, पूरे रास्ते उसे जागृत और सजग रखता और सायकल पैडल पर उसके पांवों के दबाव से नहीं उसके अपने सौंदर्य के गुरूर से गतिमान रहती।

फौरी और सटीक टिप्पणियों के लिए जाने जाते, वे अक्सर कहते- गीतांजली एक्सप्रेस जा रही है। इस रूपक की कैफियत पर बताते कि जैसे गीतांजली एक्सप्रेस अपनी गति के कारण रेल पांत के किनारे पड़ी हल्की-फुल्की चीजों के साथ-साथ गिट्‌टी के छोटे-छोटे टुकड़ों को भी उड़ाती चलती है उसके सायकिल के गुजरने पर सड़क के दोनों किनारों पर खड़े आशिक छिटक कर दूर जा गिरते हैं। उनकी इस कैफियत पर उस समय जो लाइनें याद आईं, बकौल दुष्यंत कुमार-
तुम किसी रेलगाड़ी सी गुजरती हो
मैं किसी पुल सा थरथराता हूं
आज जब सड़क किनारे के ठेले से सौदा-सुलुफ करती उस सद्य गत सौंदर्या को याद करता हूं तो उस समय जो लाइन दिमाग में आई वह थी-
''हाथ ठेले से हाफ डजन केले खरीदती वह''
यह तो थी फौरी टिप्पणी। बाद में विचार करने पर जब इन दो स्थितियों पर लिखना चाहा तो वह कुछ इस प्रकार लिखा गया-

पुनः दृश्य 1
तुम किसी रेलगाड़ी सी गुजरती हो
मैं किसी पुल सा थरथराता हूं

दृश्य 2
गुजरते वक्त के साथ-साथ, धीरे-धीरे तुम मालगाड़ी बनती जाती हो। सब्जी, अचार, मुरब्बे और पापड़ बनाते, पति, बच्चे, ननद, जिठानी और सास-ससुर के ढेर तुम पर लदते जाते हैं और इस ओवर लोडिंग से मैं किसी कोयले के टुकड़े सा तुमसे अलग छिटक कर रेल पांत के किनारे जा गिरता हूं, जहां कोयला बीनने वाले मुझे बेच आते हैं, जय जगदम्बा स्वीट्‌स और जलपान गृह में और मैं गुलाब जामुन के शीरे, पापड़ी सेव के तेल और समोसे के मसाले को आंच देते-देते जल कर मैं ख्‍वार होता जाता हूं और तुम किसी बड़े से जंक्शन के आउटर सिग्नल पर लंबी-लंबी सीटियां बजाती हांफती खड़ी रहती हो

मन में 9 मार्च 2001
कागज पर 13 मार्च 2001
अंत में शीर्षक ''यादों के बियाबां में जलावन चुनती वह''

यह आलेख श्री संजीव तिवारी के ब्‍लाग आरंभ पर प्रकाशित हो चुका है।

Sunday, February 12, 2012

मैं जिंदगी का साथ ...

देवानंद की पुस्तक 'रोमांसिग विथ लाइफ' तो पूरी तरह पढ़ी नहीं, ... पुस्तकें इतनी महंगी हो गई हैं कि पढ़ने के थोड़ा-बहुत शेष रह गए मोह के बाद भी पसंद की सारी पुस्तकों को खरीद पाना संभव नहीं। कोई अच्छा पुस्तकालय भी पहुंच और जानकारी में नहीं। अलावा इसके इंटरनेट ने पुस्तकों को चलन से बाहर सा कर दिया है। हालांकि पुस्तकें, पुस्तकें होती हैं। किताब में रखे मयूरपंख से पृष्ठ को खोलकर पढ़ना शुरू करना मुझे आज भी आसान लगता है। लैपटॉप ऑन करना फिर एक आवाज सुनना, इंटरनेट कनेक्ट होने का इंतजार, स्क्रीन रोशन होने का इंतजार और बहुत सारी कुजियों को दबाने के बाद वांछित जगह पहुंचना, तब तक पढ़ने का मूड आधा रह जाता है। खैर...

'रोमांसिग विथ लाइफ' पर अलग-अलग पत्रिकाओं में समीक्षा/टिप्पणी पढ़ने और डेढ़-दो साल पहले 'सीधी बात' में प्रभु चावला के साथ देव साहब की बातचीत सुनने के बाद मुझे जो लगा, वह देवानंद की आमरूप से जानी-पहचानी एक रोमांटिक हीरो की छवि से सर्वथा अलग है। रोमांटिक हीरो से जो छवि बनती है वह है अपनी समकालीन हीरोइनों यथा सुरैया से जीनत अमान तक लगभग सभी हीरोइनों के साथ परदे के बाहर भी किसी हद तक रोमांस में पड़े रहना। ऐसी सोच स्वाभाविक भी है सफल, खूबसूरत, मस्त, कभी नहीं मंद पड़ने वाली ऊर्जा से सराबोर, सदाबहार हीरो के प्रति हीरोइनों का आकर्षित हो जाना बिल्कुल नहीं चौंकाता।

पर देवानंद स्वयं के अनुसार रोमांस से तात्पर्य किसी इंसानी, शरीरी और दुनियावी रोमांस से नहीं है इसके लिए उनके समकालीन राजकपूर और दिलीप कुमार को संभवतः प्रामाणिक रूप से रोमांटिक कहा जा सकता है, जिनके फिल्म-हीरोइनों के साथ प्रेम-प्रसंग आम होते रहे। देवानंद को रोमांस के लिए किसी विपरीत लिंगी पात्र की आवश्यकता नहीं होती। देवानंद के रोमांस से तात्पर्य किसी व्यक्ति से नहीं, वरन जिंदगी से रोमांस, समग्र अर्थों में जिंदगी से रोमांस, किसी अमूर्त से रोमांस है। रोमांस, जिसमें किसी भौतिक स्वरूप या जिस्मानी अस्तित्व के लिए कोई स्थान नहीं होता। रोमांस के ¬¬Concept से शब्दशः मतलब है एक सूझ या विचार। ज्यादा साफ अर्थों में देव साहब का रोमांस- रोमांस की अवधारणा Hypothesis से रोमांस है। जिंदगी के साथ प्यार में पड़े रहने से प्यार, उसकी चाल से प्यार, प्यार करने और उसमें स्थाई और सतत रूप से डूबे रहने से प्यार, जिंदगी के हर रंग से प्यार, एक एहसास से प्यार, प्यार की संभावनाओं से प्यार ...।

नाम के अनुरूप दैवीय आनंद और सतत मोड़ लेते प्रवाहमय जीवन से मुकम्मल तौर पर आत्मीयता, जैसी कि उनके जीवन पर एक नजर डालने से स्पष्ट हो जाता है कि वे सदैव देव+आनंद ही बने रहे, देव+दास कभी नहीं हुए, यह खिताब दिलीप कुमार के नाम रहा। बाद के वर्षों में उनकी फिल्में नहीं चलने के बाद भी वे फिल्में बनाते रहे। जितना पाया उससे आगे खोजने, और आगे जाने की जरूरत समझते रहे। अलग-अलग देश-काल में बदलती राहों पर चलती हुई जिंदगी को देखते और महसूस करते रहे। उसका अपनी निगाह से विश्लेषण कर सेल्यूलाइड के माध्यम से हम तक पहुंचाते, जिंदगी से संवाद करते रहे। ईश्‍वर ने उन्हें एक सुदीर्घ जीवन काल से नवाजा भी और वे अपनी इस नवाजत को पूरी ईमानदारी से एक पर्याप्त सार्थक जिंदगी बनाने में लगाते रहे। उनके साथ के एक और निर्माता, निर्देशक, अभिनेता ने जिंदगी के हर रंग को सेल्युलाइड पर उतार कर हम तक पहुंचाने का बेहतरीन काम किया, चमत्कृत करने की हद तक पहुंचाया- गुरूदत्त ने। अफसोस कि उन्होंने देव साहब के उलट, अपनी जिंदगी बड़ी तेजी और बेदर्दी से खर्च कर डाली।

जिंदगी के प्रति उन्होंने रोमांस और आकर्षण एक निस्पृहता, बिना किसी मोह के, भावनारहित रोचकता के साथ बनाए रखा, किसी अंत के बारे में सोचे बिना। इसलिए उन्होंने मृत्यु के बारे में कभी बात ही नहीं की, उनकी फिल्मों में सुखांत ही नजर आया, एक अपवाद ''गाइड'' के अलावा, जो उनकी परिपक्वता की सबसे चमकीली मिसाल है, लेकिन इस फिल्म में भी जीवन के बाद के जीवन का विमर्श है। मृत्यु की बात तो वही करेगा, अंत की बात भी वही करेगा, जो शरीर के अंत से दहशतजदा होगा। जिसे जिंदगी से मोह हो, लालच हो, लंबे जीवन की सार्थकता या निरर्थकता के सवाल से परे, परन्तु रोमांस में मृत्यु या अंत जैसी चर्चा के लिए स्थान नहीं होता।

हमेशा फिल्में बनाते रहना, कुछ नया खोजने और इन सबसे, शायद सब कुछ पाने की उनकी ललक और अदम्य इच्छा ने मुझे ज्यां पाल सार्त्र के अंतिम साक्षात्कार की याद दिला दी-
सवाल :- जिंदगी से आप खुश हैं?
सार्त्र :- हां, मैं जिंदगी से बेहद खुश हूं।
सवाल :- क्या इसलिए कि जिंदगी ने आपको वह सब कुछ दिया जिसकी आपको चाह थी?
सार्त्र ने कहा- हां जिदगी ने मुझे बहुत कुछ दिया पर जो कुछ दिया वह सब कुछ नहीं था, पर इसके लिए आप कर भी क्या सकते हैं।

देवानंद के साथ भी यही बात थी जिंदगी ने उन्हें सब कुछ दिया - रूप, नाम, दौलत, शोहरत, अक्षुण्ण ऊर्जा और सुन्दर स्त्रियों का साथ, एक स्टाइल और एक अलग पहचान पर उन्हें इस जीवन काल में जो भी मिला, उन्होंने उसे सब कुछ नहीं माना। कुछ और, कुछ और पाने की प्यास में जिंदगी से सब कुछ पाने का प्रयास करते रहे। इसी कोशिश ने उन्हें रोमांटिक हीरो बनाया। हीरोईनों से नहीं, जिंदगी से रोमांस करने वाला हीरो। फिल्मों के सफल असफल होने, चलने या न चलने और उनसे लाभ कमाने की प्रत्याशा से अलग, वे अपनी रचनाधर्मिता को अंत तक निबाहते, मांजते और समृद्ध करते रहे, एक संत की भांति, संत (रेणु के लिए निर्मल वर्मा के कथन की तरह) से तात्पर्य -
''एक ऐसा व्यक्ति जो अपने इस लौकिक जीवन में किसी चीज को त्याज्य, घृणास्पद और अपवाद नहीं मानता। एक जीवित तत्व में पवित्रता और सौदर्य और चमत्कार को खोज ही लेता है, इसलिए नहीं कि वह इस पृथ्वी पर उगने वाली कुरूपता, अन्याय, अंधेरे और आंसुओं को नही, देखना चाहता बल्कि इन सबको समेटने वाली अबाध मानवता को, पहचानता है, दलदल को कमल से अलग नहीं करता, दोनों के बीच रहस्यमय और अनिवार्य रिश्ते को पहचानता है।''

देवानंद ऐसे ही रोमांटिक हीरो का नाम था, जिसका जिंदगी से रोमांस पूरे 88 वर्षों तक पूरी शिद्दत के साथ निर्बाध रूप से बना रहा। आज भी ऐसा नहीं लगता कि वे हमारे बीच नहीं हैं, क्योंकि देवानंद सिर्फ जिस्मानी संज्ञा नहीं। लगता है कि जुहू में पुरानी चन्‍दन टाकीज और इस्कान के हरे रामा हरे कृष्णा मंदिर के बीच किसी एक अलसाई सुबह या सुरमई सांझ, सड़क पर उनसे अचानक मुलाकात हो जाए और हम आश्चर्य से चौंक कर कहें-
सुनो, तुम्हारा असली नाम क्या है - जी, जॉनी।
और नकली - नकली भी जॉनी।
इसके अलावा और भी कोई नाम है - जी, ज् ज् ज् ज् जॉनी, ... आपको ज्यादा पसंद है?

यह आलेख श्री संजीव तिवारी के ब्‍लाग आरंभ पर प्रकाशित हो चुका है।