Friday, September 9, 2011

पब्लिक

ओना-मासी-ढम
दो कोड़ी में चार कम
फिर से
बोल- रााााााम
दो-तीन
भैंस खाती है चारा
औ' बजती है बीन
अब शुरू होता है
खेल एक खतरनाक
तनी रस्‍सी पर
जमूरे का नाच
बच्‍चे बीच में न बोलना
बुड्ढे मुंह न खोलना
रस्‍सी से अगर
उतर आया वापस
तब पैसे लेगा बीन
गिरा अगर
तब
सब भाई
मिलकर बोलेंगे
आमीन-आमीन.
21.05.1992

आम के आम
गुठलियों के दाम
दोनों आप ही के नाम
दाम देने वाला
सिर्फ पेड़ गिनेगा
बाद में सिर धुनेगा
आपको इससे क्‍या
पब्लिक तो आपको ही चुनेगा
बदले में सिर्फ गुठली लेगा
लगाएगा
आम के बाग
आपकी आने वाली पीढि़यां भी
खाएंगी
आम
बिना
दाम.
18.04.1992

Tuesday, April 26, 2011

अपना-पराया

तुम्‍हारा कहना
फिर आना
मेरा बन गया
रोजनामा
मैंने तो बहुत
बाद में
जाना
लेकिन क्‍या जरूरी था
तुम्‍हारा
मुझे इस तरह
सूद पर सूद का
हिसाब समझाना.
10.01.1991


आंखों को मींचे
सपनों को भींचे
पत्‍थर को सींचे
क्‍या कुछ खिला है
पांवों पर चलते
हाथों को मलते
धीरे-धीरे गलते
मुझे क्‍या मिला है
फिर भी
आपको मुझसे
क्‍या गिला है.
29.06.1991

Wednesday, April 6, 2011

कविताःछत्‍तीसगढ़

पिछले दिनों
'कविता छत्‍तीसगढ़'
पुस्‍तक प्रकाशित हुई है.
वरिष्‍ठ साहित्‍यकार
श्री सतीश जायसवाल
द्वारा संपादित पुस्‍तक का प्राक्‍कथन
कवि-चित्रकार श्री विश्‍वरंजन
(इन दिनों छत्‍तीसगढ़ पुलिस महानिदेशक) ने
'कुछ जरूरी बात' शीर्षक से लिखा है.
पुस्‍तक में मेरी ये तीन कविताएं शामिल हैं-

चांद डूब जाता है
नहीं
चांद पर बैठी
चरखा चलाती
बुढि़या की नहीं
खरगोश की बात कर रहा हूं
जो रोज चांद उगने पर
अपनी पिछली टांगों पर खड़ा
हो जाता है
सिपाही की तरह
मानों आज चांद को डूबने नहीं देगा
इस कोशिश में
वह मूंछे नचाता है
भयावह अंदाज में
होंठ सिकोड़ कर
पीले और नुकीले
दांत दिखाता है
लेकिन इन सब के बावजूद
नहीं छुपा पाता
आंखों में उभरा भय
धीरे-धीरे एक हाथ बढ़ता है
उसकी ओर
उठा लेता है उसे
पकड़ कर
लंबे कानों से
डाल देता है
सुनहरे तारों के पिंजरे में
और चांद डूब जाता है.

ध्रुव तारा भी
पढ़ते-पढ़ते
जब जाना
ध्रुव तारा भी
अटल नहीं
तब से
किसी एक जगह
जम जाना
टलता रहा.

चेहरा
जब इतना करीब हो
चेहरे से
कि
आंखों में बनने
लगें
आंखों के अक्‍स
तब कैसे हो
आपसे
मेरे चेहरे की
पहचान
   अलग-अलग.

Wednesday, March 23, 2011

मनकदमी

मन जब रात भर
जागता है
दिल तुम्‍हारे पास-पास
भागता है
पहुंचते-पहुंचते तुम्‍हारे
ठांव
हर घाव हरा हो गया
अरे
यह तो
सवेरा
हो
गया.
11.06.1991


जूते का जूता है
मोजे का मोजा
एक अरसे बाद
तोड़ा
गमबूटों ने
रोजा.
12.06.1991

Thursday, March 3, 2011

ताल्‍लुक

ऐसा तो
अक्‍सर हो जाता है
मेरे ही साथ
बैठे हों पास-पास
या
चल रहे हों साथ-साथ
हाथ को सुझाई
नहीं देता हाथ
ऐसे में भला
कैसे हो
आदमी से आदमी के बीच
फासले की
सही माप.
11.07.1989

अंदेशे
और
संदेशे
के बीच
भटका मन
फिर हुई ना
अ-न-ब-न.
15.08.1994

Wednesday, February 23, 2011

बच्चे

पहले मैं सपने बुनता हूं
फिर उन्हें गिनता हूं
ज्यादा लगने पर
उधेड़ता हूं
एक गोला सा बनाता हूं
और
इस तरह आजकल
बच्चों को मनाता हूं
रूठने पर उनके
दे कर नई गेंद.
19.06.1990

जूता, मोजा, छाता
बरसाती
रिमझिम-रिमझिम
बारिश आती
कापी, पुस्तक, कलम
औ' निब
नए साल पर दूनी फीस
बच्चों पर बस्ते हैं बीस
मम्मी-डैडी निकालें खीस
जुलाई की पहली तारीख
जा बेटा अंगरेजी सीख.
04.07.1991


Friday, February 18, 2011

लोकतंत्र

हाथ कंगन को आरसी क्‍या
पढ़े-लिखे को फारसी क्‍या
जो कंगन पाएगा
गंगा नहाएगा
वैतरणी पार कर जाएगा
फारसी पढ़ने वाला
तेल बेचने जाएगा.
16.04.1992


गर्दन सिर्फ नापिएगा
मुट्ठी ज्‍यादा जोर से
मत चांपिएगा
दम निकल जाएगा
बेचारा मर जाएगा
गुनाह
बेलज्‍जत हो जाएगा
नाप संभाल कर रखिएगा
अगले चुनाव में
हलाल के काम आएगा.
16.04.1992

Monday, February 14, 2011

जिंदगी

जिंदगी
जीना
हो गई
रोज
चढ़ते-उतरते
सारी देह
पसीना
हो गई। 
15.06.1986               

आंखों में आंखें
आंखों में तुम
इस चक्कर में
मैं
हो
गया
गुम।       
23.06.1991