Monday, July 30, 2012

सार्थक -निरर्थक

प्यार के गहनतम क्षणों में
तुम्हारे
और
मेरे बीच कुछ शब्द होते हैं
जो एक सेतु बनाते है
मुझे तुम तक
और
तुम्हे मुझ तक पहुँचाने केलिए
फिर सेतु विलीन हो जाता है
शब्द निरर्थक हो जाते है
और अगर हमारे बीच
कुछ शेष रहता है तो

तुम्हारा अर्थ ... ... ... केवल मै
मेरा अर्थ ... ... ... केवल तुम


यह रचना जरुरत ब्लाग के मेरे बालमित्र और सहपाठी श्री रमाकांत को समर्पित, जिनके आग्रह और हठ पर एक दूसरा पोस्ट अधूरा छोड़ कर यह श्रृंगार रस से लटपटाया यह पोस्ट प्रकाशित करना पड़ा.

Saturday, July 28, 2012

होना न होना

बहुत कुछ हो सकता था
कुछ नहीं हुआ
शापग्रस्त नहीं था मै
मेरे हिस्से
नहीं थी
एक भी
दुआ

Thursday, July 19, 2012

पुतलियां

कहां का रास्‍ता पूछते हैं
कहां जा रहे हैं
मल्‍हार
अब वहां खामोश हें सारे राग
कोई नहीं छेड़ता तान
न कोई लेता आलाप
कुछ मूर्तियां हैं
खड़ी रहती हैं चुपचाप
पुरातत्‍व के चौकीदार की
नजर बचाकर
ऊंघती हैं
या मार लेती हैं
झपकी एकाध
कभी-कभार
परली ओर के गांव में
चौमासे-छमासे
बजती है दुंदुभी
आदमी लड़ते हैं चुनाव
करते हैं नोंच-खसोट
एक-दूसरे का खून देख कर
होते हैं शांत
तब मूर्तियां सिर धुनती हैं
नोचती हैं बाल.
15.07.1993

नाच कठपुतली
नाच
जितना हो सके
जीवन ले
बांच
डोर का खिंच जाना तो
तय है
अक्‍सर यह होता
असमय है.
05.04.1992