तार के स्टैंड से
छिदी-बिंधी
रसीदें और रुक्के
इनके बीच भिंचा
तुम्हारी यादों के हिसाब का
गुलाबी पन्ना
जिसका सिर्फ एक कोना
बाहर झांक रहा है
देने - पाने के पुर्जे
बढ़ते-बढ़ते
छत से लटके
बल्ब के ठीक नीचे तक जा पहुँचे हैं
जहाँ रोज रात एक दुमकटी छिपकली
तितलियों
और
जुगनुओं का
शिकार किया करती है
मई 1976 की किसी रात
छिदी-बिंधी
रसीदें और रुक्के
इनके बीच भिंचा
तुम्हारी यादों के हिसाब का
गुलाबी पन्ना
जिसका सिर्फ एक कोना
बाहर झांक रहा है
देने - पाने के पुर्जे
बढ़ते-बढ़ते
छत से लटके
बल्ब के ठीक नीचे तक जा पहुँचे हैं
जहाँ रोज रात एक दुमकटी छिपकली
तितलियों
और
जुगनुओं का
शिकार किया करती है
मई 1976 की किसी रात
जैसे सूखे हुए कुछ फूल किताबों में मिले.
ReplyDeleteAah!
ReplyDeleteयादों के झरोखे से झांकना ,खोना पाना , जीवन को खूबसूरती से संजोया है आपने
ReplyDeleteतुम्हारी यादों के हिसाब का
ReplyDeleteगुलाबी पन्ना
जिसका सिर्फ एक कोना
बाहर झांक रहा है
देने - पाने के पुर्जे
निरुत्तर करती सुंदर कविता।
http://vyakhyaa.blogspot.in/2012/09/blog-post_12.html
ReplyDeleteबहुत खूब....|
ReplyDeleteदेने - पाने के पुर्जे
ReplyDeleteबढ़ते-बढ़ते
छत से लटके
बल्ब के ठीक नीचे तक जा पहुँचे हैं
जहाँ रोज रात एक दुमकटी छिपकली
तितलियों
और
जुगनुओं का
शिकार किया करती हैं
बिलकुल नए प्रतीकों में बाँधा है आपने
उस बल्ब की वह कमज़ोर पीली अवसादी रोशनी ...
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ReplyDeleteसुन्दर रचना, सार्थक भाव, बधाई.
कृपया मेरे ब्लॉग"meri kavitayen" की नवीनतम पोस्ट पर भी पधारें , आभारी होऊंगा.
बहुत ही बढ़िया । मेरे नए पोस्ट समय सरगम पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद।
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