कहां का रास्ता पूछते हैं
कहां जा रहे हैं
मल्हार
अब वहां खामोश हें सारे राग
कोई नहीं छेड़ता तान
न कोई लेता आलाप
कुछ मूर्तियां हैं
खड़ी रहती हैं चुपचाप
पुरातत्व के चौकीदार की
नजर बचाकर
ऊंघती हैं
या मार लेती हैं
झपकी एकाध
कभी-कभार
परली ओर के गांव में
चौमासे-छमासे
बजती है दुंदुभी
आदमी लड़ते हैं चुनाव
करते हैं नोंच-खसोट
एक-दूसरे का खून देख कर
होते हैं शांत
तब मूर्तियां सिर धुनती हैं
नोचती हैं बाल.
15.07.1993
नाच कठपुतली
नाच
जितना हो सके
जीवन ले
बांच
डोर का खिंच जाना तो
तय है
अक्सर यह होता
असमय है.
05.04.1992
मूर्तियों ने जमाना देखा होता है.
ReplyDeleteवाह....
ReplyDeleteबेहतरीन रचनाएँ..
नाच कठपुतली
नाच
जितना हो सके
जीवन ले
बांच
डोर का खिंच जाना तो
तय है
अक्सर यह होता
असमय ...
बहुत सुन्दर.........
अनु
नाच कठपुतली
ReplyDeleteनाच
जितना हो सके
जीवन ले
बांच
डोर का खिंच जाना तो
तय है
अक्सर यह होता
असमय
जीवन सार को समझाती रचना लगता है किसी ने मर्म को छू लिया .
MARMIK ABHIVYAKTI .AABHAR
ReplyDeleteवाह ... बहुत ही अच्छी प्रस्तुति।
ReplyDeleteसंवेदनहीनता को बहुत गहरे शब्द दिए हैं. ये जीवन कठपुतलियों-सा, डोर का खिंच जाना तय है. बहुत भावपूर्ण रचना, बधाई.
ReplyDeleteजितने हम संवेनहीन होते जा रहे हैं, उतने ही ह्रुदयहीन भी।
ReplyDeleteकविता विचारोत्तेजक है।
सुंदर कल्पना, मूर्तियाँ साक्षी होती हैं हमारी और कठपुतिलयों सा हमारा जीवन, कब डोर खिंच जाए और नाटक खत्म, कह नहीं सकते।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भाव..
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