Sunday, November 11, 2012

अमराई



अमराई में अब तो अम्बियां दीखने लगी होंगी मुझे तुम याद आये कोलाज़ की तरह बेतरतीब स्मृतियां-

अम्बियों और कैरियों के पीछे मेरी दीवानगी और तुम्हारे गुलेल के निशाने की परीक्षा। मैंने पूछा मैं जो अम्बियां कहूं तुम गुलेल से तोड़ दोगे, तुमने ये नहीं कहा ये तो मेरे बाएं हाथ का काम है (फिल्म शोले की तरह) गाँव की गलियों में घूमती किसी पागल लड़की की तरह चलती, जेठ के तप्त झोंकों से लहराते मेरे सूखे बालों के बीच छिपते-निकलते चेहरे की तरफ देखकर तुमने पूछ ही लिया, तुम्हें क्या पसंद है। कैरियां, टिकोरे या सुग्गों के जूठे किये मीठे आम (शबरी के बेरो की तरह) मैं तो आज तक तय नहीं कर पाई अम्बियां, कैरियां या टिकोरे।

तुमने वादा किया आने का इस शर्त के साथ कि गुलेल के लिए गोल-गोल पत्थर मैं चुन कर लाऊं, छोटी पहाड़ी से निकले बरसाती नाले की रेत से चुनकर, मैं पूरी दोपहर चुनती रही गोल चिकने पत्थर, जलती रेत में नंगे पांव, जूतियाँ नहीं पहनी, मां पूछती इतनी दोपहर में कहा? तो पकड़ी जाती। पावों के छालों के साथ, भर ली फ्राक की दोनों जेबें, अब कहूँगी तोड़ो अम्बियां इन कंकरों से, जब तक खाली जेबें न भर जायें कसैली खट्टी कैरियों से और हां मुट्ठी में छुपाकर एक चुटकी नमक साथ लाई, कैरियों के साथ तुम्हें परोसने के लिए, गिनती रही उंगलियों के इशारे से अम्बियां, जब आओगे उंगलियों से दिखाकर कहूंगी वो वाली, नहीं उसके साथ वाली, इस तरह तुम्हें परेशान कर दूंगी, तुमने भी तो यही किया, अब तक मैं गिनती रही कैरियां, सुनती रही कोयल की बेसब्र कूक और देखती रही हारिलों का फुदकना, सुग्गों की लाल, चोंच हरी कैरियों के बीच।

तुम नहीं आये।

सूरज आ गया उस कोने के सबसे घनेरे आम की फुनगी से नीचे, तुम नहीं आये। उकता कर मैं चली आई, घाट पर फेंकने लगी सारे गोल कंकर, जतन से सहेजे हुए, तुम्हारी गुलेल के लिए जो भरे थे फ्राक की जेबों में कल से। हर कंकर से कांप जाती पानी की सतह और थरथराती लहरें,जैसे मेरे मन में उठ रही हो, ऊभ-चूभ होती मेरी उम्मीदों की तरह, पर तुम नहीं आए, मुट्ठी में बंद नमक पसीज कर फैलने लगा। आखिरी कंकर फेंककर धो ली मैंने हथेलियां और देर तक देखती रही, अपने को पहचानने की कोशिश में फैलती लहरों के साथ, धुंधलाता अपना ही अक्स, तब से मैंने अम्बियां खाई ही नहीं अब तक, यह जानकर कि उस पूरी दोपहर तुम बावरे से भागते रहे बोहार बन में फाख्ताओं के पीछे। जब तक अमराई में चिमगादड़ उलटे नहीं लटकने लगे। 

आम की घनी और ठंढी छांव में बिताई दुपहरिया में न जाने कितनी बातें सीखीं तुमसे, सूखे पत्तों के बीच सरसराकर निकलते बड़े से सांप से डर कर तुम्हारी ओर भागी तो तुम्हीं ने बताया पगली ये तो असढि़या है, आषाढ़ का सांप है जिसका जहर सिर्फ आषाढ़ में मारक होता है और देखो इस साल दो आषाढ़ हैं, पुरुषोत्तम मास और यह भी कि शास्त्रों में कहा गया है- मिट्ठू और गिलहरियों के काटने से फल और बछड़े के पीने से दूध कभी जूठा नहीं होता, सर्प और फल के ये गुण जानती तो तुम्हारी ओर डर से नहीं भागती, आदम-ईव की कहानी तो बाद में पढ़ी, काश ये जान लेती उस दुपहरिया में ईडन के बाग, सांप और निषिद्ध फल का पुराण और तुम्हें भी, मैं तो जान ही नहीं पाई, प्रकृति विज्ञान और शास्त्रों के ज्ञाता तुम, मेरे भी मन को क्यों नहीं पढ़ पाए या जान-बूझकर अजाने बने रहे  मैं तो आज तक ये समझ ही नहीं पाई उस दिन की बीती दुपहरिया जैसे कितने साल बीत गए, अब आसपास ना अमराई है, न तालाब, न बरसाती नाला, खिड़की से दिखने वाला भी आसमान धुआं-धुआं हो चला है और मैं तो अब तक भी तय ही नहीं कर पाई, अम्बियां, कैरियां या टिकोरे/कोयल, हारिल या चिमगादड़ या फाख्ते, कौन है जो मुझे खींच लेता है बार-बार अमराई में।

अब तो आ ही गई होंगी अम्बियां अमराई में

3 comments:

  1. जीवन में घटते क्षण और बितता समय और उनका आनंद , बीत गए पलों की कसक आपकी रचना में झलकी , एक पल को लगा की बचपन कहीं झूले की तरह आगे पीछे आ जा रहा है.

    ReplyDelete
  2. ये बहुत सुंदर गध्य है। मेरी सुबह अच्छी हुई।

    ReplyDelete
  3. हर बार एक सुंदर सरप्राइज आपकी ब्लाग पर हमारी प्रतीक्षा करती रहती है।

    ReplyDelete