Sunday, June 17, 2012

सबरिया

छत्तीसगढ़ के रायगढ़-बिलासपुर अंचल के निवासी ''सबरिया'' वस्तुतः कौन है? ठीक-ठीक कोई नहीं जानता। नृतत्वशास्त्री, न समाजशास्त्री, न शासकीय विभाग और न खुद सबरिया। समय के साथ-साथ नदी के किनारों से मैदानों की ओर बढ़ते सबरियों की पहचान, आज धुंधली पड़ गई है। इसके सिर्फ दो ही उपादान शेष हैं जो इनके मूल स्थान और पहचान की ओर संकेत कर सकते हैं। प्रथम, उच्चारण में थोड़े अंतर के साथ ये तेलुगु बोलते हैं और अपने साथ हमेशा लोहे का मोटा डंडा, सब्बल लिए रहते हैं। इनकी बसाहट से यह भी स्पष्ट है कि ये इस क्षेत्र में महानदी के साथ चलते-चलते प्रवेश कर गये, वे किस प्रयोजन से यहां आये इसका प्रामाणिक और सही जवाब शायद महानदी ही दे सकती है। काश! यह बोलती होती।

सबरियों का अपना कोई लिखित दस्तावेज नहीं है अतः अपनी पहचान के लिए दूसरों पर निर्भर हैं और इनको पहचानने के प्रयास गंभीर स्तर पर नहीं हुए। कुछ शोध निबंध सबरिया जाति पर आधारित है पर इस मूल प्रश्न का कि सबरिया आखिर हैं कौन, सभी मौन हैं। सरकारी खानापूरी इतने से ही हो जाती है कि इनकी जनसंख्‍या कितनी है और इन्हें मिलाकर आदिवासियों की जनसंख्‍या का प्रतिशत कुल जनसंख्‍या में कितना है। शासन ऐसे कुछ मामलों में आंकड़ों को इतना महत्व देता है कि आदमी उसके पीछे छिप जाता है। आवश्यकता पड़ने पर पुलिस की डायरियां और तहसील कार्यालय इन्हें गोंड मानकर काम चला लेते हैं। कभी-कभी तो इन्हें सिर्फ आदिवासी बता देना ही पर्याप्त समझा जाता है।

सबरिया, शासकीय अनुसूची की जाति/जनजाति में शामिल नहीं है। इस अंचल की जाति/जनजाति पर तैयार सर्वाधिक प्रामाणिक पुस्तक ''ट्राइब्स एण्ड कास्ट्‌स आफ द सेन्ट्रल प्राविन्सेस आफ इंडिया'' में रसेल एवं हीरालाल का ध्यान भी इन पर नहीं गया। संभवतः इन्होंने भी सबरियों को अन्य स्थापनाओं की तरह सहरिया या संवरा (शबर) मान लिया है। बाद के अध्ययन-प्रकाशन में लेखकों, शोधकर्ताओं ने इससे इनकार किया है कि संवरा या सहरिया से सबरियों का कोई संबंध है, अलावे नाम में साम्यता के। क्योंकि रहन-सहन, भाषा, शारीरिक गठन, पेशा, धार्मिक मान्यताओं में ये एकदम पृथक हैं। सहरिया मूलतः मुरैना, शिवपुरी, गुना जिलों में पाये जाते हैं। इन्हें पूर्व में अपराधी जनजातियों की सूची में रखा गया था। शबर, मूलतः उड़ीसा के रहने वाले हैं और भाषा आधार पर मुण्डा भाषा परिवार के अंतर्गत हैं जबकि सबरिया, द्रविड़ भाषा परिवार के सदस्य हैं।

छत्तीसगढ़ अंचल के निवासी, पुराने आगन्तुक, ''सबरिया'' नाम से कैसे जाने गए, इसके मुख्‍यतः तीन कारण संभावित है। पहला, जार्ज ग्रियर्सन ने अपने भाषा सर्वेक्षण में छत्तीसगढ़ के इस क्षेत्र में 'शबर' जाति की उपस्थिति दर्ज की है। दूसरा, यह कि एक किंवदंती के अनुसार ये रामकथा की आदिवासी वृद्धा शबरी के वंशज हैं और कहा जाता है कि शबरी ने शिवरीनारायण में भगवान राम को जूठे बेर खिलाये थे। संयोग है कि शिवरीनारायण के आसपास सबरिया जाति की बड़ी जनसंख्‍या निवास करती है। तीसरी मान्यता इनके मूल उपादान, लोहे के डंडे या सब्बल से है। इस कारण सब्बल (छत्तीसगढ़ी-साबर) धारण करने वाला, सबरिया कहलाए। सबरिया अपने इस बहुउपयोगी औजार-उपकरण का इस्तेमाल अत्यंत कुशलता से खोदने, काटने, भारी वस्तु उठाने, शिकार आदि सभी कार्यों के लिए करते हैं।

किंवदंतियों/अवधारणों से परे हटकर और पूर्वाग्रहों से अलग, तार्किक रूप से विचार करने पर इनकी पहचान तो नहीं हो पाती परन्तु पूर्व में उल्लेखित दोनों उपादानों, बोली और सब्बल से इनके मूल स्थान, जीवन शैली और जीवन-यापन के ढंग के बारे में स्पष्ट संकेत मिलता है। साबर या सब्बल एक ऐसा औजार है जिसका प्रयोग, मूलतः खोदने और भारी वस्तुओं के उठाने हेतु उत्तोलक के रूप में सर्वाधिक होता है। इससे यह तो कहा ही जा सकता है कि सबरिया ऐसे कार्य में कुशल रहे हैं जिसका खोदने और भारी वस्तुओं को उठाने से संबंध हो। यानि तार्किक संभावना है कि सबरिया मूलतः खनिक हैं और आंध्रप्रदेश के उस क्षेत्र में निवासी हों जहां इमारती पत्थरों की खदानें रही हों और वहां से वे उड़ीसा होते हुए या बस्तर हो कर छत्तीसगढ़ आए और इनके छत्तीसगढ़ के इस मैदानी भू-भाग, जो अब इनका बसाहट का क्षेत्र है, में प्रवेश, महानदी मार्ग से हुआ। लेकिन दूसरा प्रश्न अभी भी अनुत्तरित है कि जीवन यापन का साधन होते हुए ये अपने मूल निवास स्थान को छोड़कर इस क्षेत्र में क्यों चले आये। इसके लिये महानदी के किनारे बसे प्राचीन नगरों में पाये जाने वाले साक्ष्य की पड़ताल जरूरी है।

महानदी के किनारे पुरातात्विक महत्व के कई सम्पन्न नगरों के अवशेष प्राप्त होते हैं, जिनमें अधिकांशतः पत्थरों की बड़ी-बड़ी सिलों से निर्मित है। एक किवदंती शिवरीनारायण, जांजगीर और पाली के प्राचीन मंदिरों के साथ जुड़ी है, जिनका निर्माण छमासी रात में हुआ, बताया जाता है। चूंकि सबरिया शारीरिक रूप से बलिष्ठ एवं परिश्रमी होते हैं अतः यह माना जा सकता है कि लगभग एक हजार वर्ष पूर्व इन मंदिरों के निर्माण के लिए इन्हें परिवहन और पत्थर की बड़ी-बड़ी लाटों को मंदिर की ऊंचाई पर पहुंचाने हेतु लाया गया होगा। धीरे-धीरे इनकी मिट्‌टी काटने की कुशलता और परिश्रम से इन्हें लगातार काम मिलता गया होगा और आंध्र से आये ये अप्रवासी मजदूर यहीं बस गये होंगे। एक अन्य कथा पर स्वयं सबरिया विश्वास करते हैं कि बहुत पुराने समय में दक्षिण की ओर भयानक दुर्भिक्ष पड़ने के कारण इनके पूर्वज ''जनम देंसु'' (उत्तर दिशा) के राजा के यहां जीवन यापन हेतु चले और वहीं के होकर रह गये।

ये अपना मूल स्थान छोड़कर छत्तीसगढ़, संभवतः ऐसे ही किसी प्रयोजन से आये और यहीं के होकर रह गये। दक्षिण से छत्तीसगढ़ की इनकी यात्रा और तब से अब तक हुए सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन, बीच की विलुप्त कड़ियां हैं। आवश्यकता है, इन विलुप्त कड़ियों को खोजने के गंभीर, ठोस और ईमानदार प्रयास की, ताकि इन्हें अपनी सही और मुक्कमल पहचान मिल सके और उस पहचान की रोशनी में शासन अनुसूचित जाति/जनजाति की सूची में शामिल कर इन्हें अपना जीवन स्तर सुधारने में इस प्रकार सहयोग दे ताकि अपनी मौलिकता बनाये रखते हुए तेलुगूभाषी सबरिया, छत्तीसगढ़ के निवासी बने रह सकें। अगर अब भी ऐसा प्रयास नहीं हुआ तो इनकी धुंधलाती पहचान समय के साथ खो जावेगी।

Tuesday, June 12, 2012

मौत

मौत – 1

मौत
चूहों के लिए
बिल्‍ले की तरह आती है
गुर्राती है
डराती है
खिलाती है/खिझाती है
और थक जाने पर
चट कर जाती है
लोग यूं ही गपशप
कर लिया करते हैं
सुना तुमने
..........................
अच्‍छा!
कब हुआ?
बुरा हुआ!
27.05.1986

मौत – 2

मौत
इन्‍सान के लिए
काली और चमकदार
बिल्‍ली की तरह
आती है और
मौका देख कर
चुपचाप रास्‍ता काट जाती है
.................................
मैं, तुम
यह-वह
झपट कर एक-दूसरे को
भय में साझीदार बनाते हैं
जानते हो.........
घुटी-घुटी
आवाज आती है
कैसे हुआ?
क्‍या सचमुच.
27.05.1986

मौत – 3

दरवाजे पर आहट आई
मौत ने कॉलबेल बजाई
मैं खोल ही पड़ता
उठकर उसका रास्‍ता
कॉलबेल बंद हो गई
चली गई बिजली
बच्‍चा चौंक कर जग गया
फिर बंद ही रह गया
दरवाजा
सुबह होने तक.
15.07.1993