Thursday, July 19, 2012

पुतलियां

कहां का रास्‍ता पूछते हैं
कहां जा रहे हैं
मल्‍हार
अब वहां खामोश हें सारे राग
कोई नहीं छेड़ता तान
न कोई लेता आलाप
कुछ मूर्तियां हैं
खड़ी रहती हैं चुपचाप
पुरातत्‍व के चौकीदार की
नजर बचाकर
ऊंघती हैं
या मार लेती हैं
झपकी एकाध
कभी-कभार
परली ओर के गांव में
चौमासे-छमासे
बजती है दुंदुभी
आदमी लड़ते हैं चुनाव
करते हैं नोंच-खसोट
एक-दूसरे का खून देख कर
होते हैं शांत
तब मूर्तियां सिर धुनती हैं
नोचती हैं बाल.
15.07.1993

नाच कठपुतली
नाच
जितना हो सके
जीवन ले
बांच
डोर का खिंच जाना तो
तय है
अक्‍सर यह होता
असमय है.
05.04.1992

9 comments:

  1. मूर्तियों ने जमाना देखा होता है.

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  2. वाह....
    बेहतरीन रचनाएँ..

    नाच कठपुतली
    नाच
    जितना हो सके
    जीवन ले
    बांच
    डोर का खिंच जाना तो
    तय है
    अक्‍सर यह होता
    असमय ...

    बहुत सुन्दर.........
    अनु

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  3. नाच कठपुतली
    नाच
    जितना हो सके
    जीवन ले
    बांच
    डोर का खिंच जाना तो
    तय है
    अक्‍सर यह होता
    असमय

    जीवन सार को समझाती रचना लगता है किसी ने मर्म को छू लिया .

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  4. वाह ... बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तुति।

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  5. संवेदनहीनता को बहुत गहरे शब्द दिए हैं. ये जीवन कठपुतलियों-सा, डोर का खिंच जाना तय है. बहुत भावपूर्ण रचना, बधाई.

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  6. जितने हम संवेनहीन होते जा रहे हैं, उतने ही ह्रुदयहीन भी।
    कविता विचारोत्तेजक है।

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  7. सुंदर कल्पना, मूर्तियाँ साक्षी होती हैं हमारी और कठपुतिलयों सा हमारा जीवन, कब डोर खिंच जाए और नाटक खत्म, कह नहीं सकते।

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  8. बहुत सुन्दर भाव..

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