भाई रमाकांत जी के ब्लाग "आभा - द स्पलेंडर" की रचना "आइना" पर टिप्पणी स्वरुप मैंने कई साल पहले पढ़ी एक कविता की दो पंक्तियाँ लिख दी थीं। मुझे उनकी इस कविता पर कमेन्ट के लिए इससे बेहतर कुछ लगा ही नहीं,उन्हें ये पंक्तियाँ इतनी पसंद आई कि उनके आग्रह की चाशनी में डूबा आदेश हुआ कि इस पूरी रचना को अपने ब्लाग पर प्रकाशित कर ब्लाग जगत के मित्रों-बंधुओं से साझा करूँ।
यह कविता काफी अरसा पहले पढ़ी थी, जहाँ तक मुझे स्मरण है- कादम्बिनी के 1980 के किसी अंक में। कल देर रात तक याद करने की कोशिश करता रहा 2-3 घंटों की दिमागी कसरत के बाद रचना की सारी पंक्तियाँ याद आ गई पर अफसोस कि रचनाकार का नाम तमाम कोशिशों के बाद याद न कर सका एक अरसे लगभग 33 साल पहले पढ़ी इस रचना का साझा आपसे कर रहा हूँ।
उस बिसर गए रचियता से क्षमायाचना और आभार सहित।
आशा है आपको भी पसंद आएगी। पूरी पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-
रूप मरकत सा पिघलता है बताओ क्या करें,
अब न दर्पण में सम्हलता है बताओ क्या करें।
शाम क़त्ल हुआ सूरज का घाटियों के पीछे,
दाग पुतलियों पर मिलता है बताओ क्या करें।
सुबह की किरणें चुरा कर ले गईं तारकों की टोकरी,
नाम चूनर का उछलता है बताओ क्या करें।
खुद भटकते हैं डगर आरोप लगते हैं मगर,
आपका मौन छलता है बताओ क्या करें।
विनम्र अनुरोध : यदि कोई ब्लागर मित्र इस रचनाकार का नाम याद कर सकें तो मुझे अवश्य बताएं में आभारी रहूँगा, कवि को आभार व्यक्त कर उनकी रचना का उपयोग करने के ऋण से मुक्त हो सकूँगा. समर्पित, भूले हुए अज्ञात रचयिता को ............
सूरज, किरणें, घाटियाँ, टोकरी, चूनर, पलक, मौन
यह कविता काफी अरसा पहले पढ़ी थी, जहाँ तक मुझे स्मरण है- कादम्बिनी के 1980 के किसी अंक में। कल देर रात तक याद करने की कोशिश करता रहा 2-3 घंटों की दिमागी कसरत के बाद रचना की सारी पंक्तियाँ याद आ गई पर अफसोस कि रचनाकार का नाम तमाम कोशिशों के बाद याद न कर सका एक अरसे लगभग 33 साल पहले पढ़ी इस रचना का साझा आपसे कर रहा हूँ।
उस बिसर गए रचियता से क्षमायाचना और आभार सहित।
आशा है आपको भी पसंद आएगी। पूरी पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-
रूप मरकत सा पिघलता है बताओ क्या करें,
अब न दर्पण में सम्हलता है बताओ क्या करें।
शाम क़त्ल हुआ सूरज का घाटियों के पीछे,
दाग पुतलियों पर मिलता है बताओ क्या करें।
सुबह की किरणें चुरा कर ले गईं तारकों की टोकरी,
नाम चूनर का उछलता है बताओ क्या करें।
खुद भटकते हैं डगर आरोप लगते हैं मगर,
आपका मौन छलता है बताओ क्या करें।
विनम्र अनुरोध : यदि कोई ब्लागर मित्र इस रचनाकार का नाम याद कर सकें तो मुझे अवश्य बताएं में आभारी रहूँगा, कवि को आभार व्यक्त कर उनकी रचना का उपयोग करने के ऋण से मुक्त हो सकूँगा. समर्पित, भूले हुए अज्ञात रचयिता को ............
सूरज, किरणें, घाटियाँ, टोकरी, चूनर, पलक, मौन
मेरे अनुरोध को आपने पूरा किया ह्रदय से आभारी और इतनी खुबसूरत और जीवन से जुडी रचना को साझा करने के लिए नमन हम आपसे बेइंतहा प्यार करते हैं
ReplyDeleteकौन याद रखता है आज ज़माने में किसे
हमने तो अपने दर का पता आपसे जाना
बहुत सुन्दर प्रस्तुति ..आभार . छत्तीसगढ़ नक्सली हमला -एक तीर से कई निशाने
ReplyDeleteसाथ ही जानिए संपत्ति के अधिकार का इतिहास संपत्ति का अधिकार -3महिलाओं के लिए अनोखी शुरुआत आज ही जुड़ेंWOMAN ABOUT MAN
मिजाज तो रमानाथ अवस्थी या इसी तरह के किसी गीतकार का है.
ReplyDeleteखुद भटकते हैं डगर आरोप लगते हैं मगर,
ReplyDeleteआपका मौन छलता है बताओ क्या करें..
मस्त ... लाजवाब गीत है ... अनाम लिखने वाले को सलाम ...
Nihayat sundar rachana!
ReplyDeleteब्लॉग पर दस्तक देने हेतु धन्यवाद।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर लगी रचना की यह पंक्तियाँ
ReplyDeleteखुद भटकते हैं डगर आरोप लगते हैं मगर,
आपका मौन छलता है बताओ क्या करें।
आभार उस अनाम रचनाकार की रचना साझा करने के लिए !
शाम कत्ल हुआ सूरज का घाटियों के पीछे,
ReplyDeleteदाग पुतलियों पर मिलता है बताओ क्या करें।
कमाल है !
एक अच्छी रचना साझा करने के लिए आभार।
खुद भटकते हैं डगर आरोप लगते हैं मगर,
ReplyDeleteआपका मौन छलता है बताओ क्या करें।....dhanyavad rajesh jee itni acchhi rachna padhwane ke liye ....
बेहतरीन कविता धन्यवाद !!
ReplyDeleteलाजवाब कविता. धन्यवाद !!
ReplyDeleteउम्दा..और आपकी सुन्दर यादाश्त के लिए क्या कहना..
ReplyDeleteखुद भटकते हैं डगर आरोप लगते हैं मगर,
ReplyDeleteआपका मौन छलता है बताओ क्या करें..
बहुत ही भावपरक प्रस्तुति। धन्यवाद।
रचना अच्छी है तभी इतने समय तक आपको याद भी रही।
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी कविता है.
ReplyDeleteरचनाकार का नाम मुझे भी मालूम नहीं .
बहुत लाजवाब,आपकी यदाश्त की भी दाद देदी पड़ेगी
ReplyDelete" सुबह की किरणे चुरा कर ले गई तारों की रोशनी " इसे पढ कर " कामायनी" की कुछ पंक्तियॉं याद आ रही हैं- " फटा हुआ था नील वसन क्या ओ यौवन की मतवाली । देख अकिञ्चन जगत लूटता तेरी छवि भोली-भाली ।"
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