Monday, May 27, 2013

भाई रमाकांत जी के ब्लाग "आभा - द स्पलेंडर " की रचना" आइना" पर टिपण्णी स्वरुप मैनें कई साल पढ़ी एक कविता की दो पंक्तियाँ लिख दी थीं। मुझे उनकी इस कविता पर टिपण्णी के लिए इससे बेहतर कुछ सूझा ही नहीं। .,उन्हें ये पंक्तियाँ इतनी पसंद आई कि उनके आग्रह की चाशनी में डूबा आदेश हुआ कि  इस पूरी रचना को अपने ब्लाग पर प्रकाशित कर ब्लाग जगत के मित्रों-बंधुओं से साझा करूँ।यह कविता काफी अरसा पहले पढ़ी थी जहाँ तक मुझे स्मरण है - कादम्बिनी के 1980 के किसी अंक में कल पूरी रात याद  करने की कोशिश करता रहा 2-3      घंटों  की दिमागी कसरत के बाद रचना की सारी पंक्तियाँ याद  आ गई पर इस बात का दुःख रहा  कि  रचनाकार का नाम तमाम कोशिशों के बाद याद  न कर सका .आप सभी से एक अरसे लगभग 33 साल पहले पढ़ी इस रचना का साझा कर रहा हूँ ,उस बिसर गए रचियता से क्षमायाचना और आभार सहित। आशा है आपको भी पसंद आएगी .

पूरी पंक्तियाँ इस प्रकार हैं- 

रूप मरकत सा पिघलता है बताओ क्या करें,
अब न दर्पण में सम्हलता है बताओ  क्या करें।
 
शाम क़त्ल हुआ सूरज का घाटियों के पीछे ,

दाग पुतलियों पर मिलता है बताओ क्या करें।
 
सुबह की किरणें चुरा कर ले गईं तारकों  की टोकरी ,

नाम चूनर का उछलता है बताओ क्या करे।

खुद भटकते हैं डगर आरोप लगते  हैं मगर,
 
आपका मौन छलता है बताओ क्या करें।



* विनम्र अनुरोध : यदि कोई  ब्लागर मित्र इस  रचनाकार का नाम याद  कर सकें तो मुझे अवश्य बताएं में  आभारी रहूँगा,उन्हें आभार व्यक्त कर उनकी रचना का उपयोग करने के ऋण से मुक्त हो सकूँगा। 


समर्पित भूले हुए अज्ञात रचयिता को .............

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