मई की उस दोपहर नीली जींस और सलेटी टी शर्ट पहने आवारा घूमते बादलों ने सूरज की जलती आँखों पर धूप चश्मा पहना दिया और शाम कुछ पहले ही ढलने-ढलने हो गई। ठण्डी हवा के गीले झोंकों ने बताया कहीं बारिश जरुर हुई है, पर इतनी दूर कि ठंडक तो यहाँ तक किसी तरह पहुँच गई पर बारिश की सहेली मिट्टी की सोंधी गंध ने कहीं बीच में ही झोंकों का साथ छोड़ दिया। छोटे से टेरेस गार्डन पर लगे बोन्साई पाम की सुई सी पत्तियां कभी हाँ कभी ना कहती फरफराने लगीं, गुलाब अपनी मौन स्वीकृति देता अनमना सा खड़ा रहा और लान की घास सद्य संपन्न सहवास से स्वेदश्लथ, उतार-चढ़ाव का विसर्जन कर सम पर आकर गीली, अलसाई सी लेट गई थी।
नीचे उतर कर अगले मोड़ से मैंने उस रास्ते पर आंख लगा दीं जिधर से वह आने को थी। इंतज़ार थोड़ा पहले शुरू हो गया। उसके आने में अभी समय था पर चाहता था कि दूर से ही उसे देख लूँ ताकि कुछ अधिक देर तक उसे देख सकूँ। मुलाकात से पहले और बाद में भी, वह अगले मोड़ पर जाकर सड़क के साथ घुल न जाये। वैसे भी इन दिनों करने को कुछ नहीं था, ज्यादातर समय घर पर ही रहने की ऊब को किताब पढ़ने से पैदा हुई ऊब के साथ घिस कर पतला और तरल कर देने की योजना बनाते बीतता। ऐसे में समय से पहले किसी का इंतज़ार ऊबने को कितना घिस सकता है, गुनने की कोशिश में गुम था।
वह दूर दिखाई दी, धुंधलाई सी और फिर साफ होती गई जैसे कैमरे को धीरे-धीरे फोकस किया जा रहा हो। सामने आकर थोड़ी देर मेरी आँखों में सीधे देखने की बजाय मेरे सर के ऊपर देखती रही। हम दोनों किसी मज़बूरी से बंधे रेस्तरां की सीढियाँ उतरने लगे। यह बेसमेंट में था और इस समय वह खाली रहता था। छत पर एक फानूस ऊँघता सा जल रहा था। कांपती और ऊबी सी रौशनी की पियरायी पुरानी चादर बमुश्किल हाल के बिचले फर्श पर गिर कर किसी बेजान बिल्ली सी पसर गई थी। दीवार के किनारे-किनारे चलते हुए हम सबसे कोने की मेज की तरफ जा रहे थे। दीवार पर पड़ती हमारी परछाईं से लगता दो आधे आदमी चल रहे एक फर्श पर रपटता और दूसरा दीवार पर फिसलता हुआ।
कोने की मेज पर चारखाने वाली मेजपोश शतरंज की बिसात की तरह बिछी थी, जिस पर सालन और शोरबे के सूखे दाग, मोहरों से तैनात हमारा ही इन्तजार कर रहे थे। बासी खाने की गंध हमारे चेहरों के बीच आकर खड़ी हो गई। हमारे शरीर की गंध उसे पार करने की जद्दोजहद से थककर टेबल पर गिर पड़ी। हॉल में इतनी रोशनी नहीं थी कि वह बाहर झांक सके और बाहर की कुम्हलाई रौशनी दरवाजे पर भीतर आने न आने के असमंजस में चौखट पर खड़ी थी। उंना सा अँधेरा दोनों के बीच भिंचकर मुश्किल से साँस ले पा रहा था।
तुम यहाँ अक्सर आते हो, नहीं, सिर्फ तब जब अकेला रहना चाहता हूँ।
वेटर काफी के प्याले रख गया काफी की गन्ध थोड़ी देर लड़खड़ाती रही फिर उसने खाने की बासी गंध को धीरे-धीरे ऊपर को धकेलना शुरू किया। खाने गंध की मक्खियाँ अब हमारे सिरों मंडराने लगी। उसकी उँगलिया पहले मेजपोश पर वह कुछ लिखने की सी कोशिश करने लगीं शायद, जो वह कहना चाहती थी। लेकिन अदिख लिखाई ने जल्दी ही उँगलियों का साथ छोड़ दिया और वे टेबल को थपथपाने और मेरी नसों पर दस्तक देने लगी। अनमनी सी होकर उसने सामने बिछी शतरंज पर पहली चाल चली- तुम्हें यह सब नहीं लिखना था।
मैंने सर को हल्की सी जुम्बिश दी जिसका मतलब कुछ भी हो सकता था हाँ भी और न भी और शायद दोनों में से कुछ भी नहीं। कई बार हम बात को सुनकर नहीं सुनने जैसा करते हैं। इस उम्मीद से कि बोलने वाला दरवाजे की सेफ्टी चेन हटाकर थोड़ी सी और जगह बनाये और बातों को अन्दर आने दे। सड़क पर बारिश धीमी हो गई थी। अब तेज हवा उसका पल्लू पकड़ कर उसे बार-बार मोड़ देती और उसकी लय बदल जाती, जैसे कोई म्यूजिक कम्पोजर अपनी छोटी सी छड़ी से संगीत की लय बदल रहा हो। हमारी आँखें खुली थीं पर काफी से उठती भाप ने उसे इस तरह पनिया दिया था कि हम एक दूसरे को देख नहीं पा लगा ऐसी कार में बैठे हैं, जिसके वाइपर ने विंड स्क्रीन का साथ छोड़ दिया हो।
इसी बीच हवा ने रुख बदला और खिड़की के पल्ले आपस में बात करने लगे। दरवाजा उनकी बात सुनते-सुनते, बीच में कभी धीरे से सर हिला देता। हवा के बदले रुख से सड़क पर सर धुनती बारिश की एक बूंद छज्जे से उड़ती हुई खिड़की के धुंधलाए कांच को खरोचती नीचे उतर गई। शीशे का चेहरा दो हिस्सों में बंट गया और बीच की दरार से वह सब कुछ दिखने लगा जिससे हम भाग कर अन्दर आए थे। उसने अपना हैण्ड बैग खोला और उसकी उँगलियाँ देर तक कुछ टटोलती रही। कभी लगता कि वह जो निकालने जा रही है वह उसकी पकड़ में है पर वह नए सिरे से बैग के खोखल के अन्दर उँगलियाँ घुमाने लगती। अक्सर हम देर से हमारे पास रखी चीज़ को आजाद करने से पहले आखिरी बार अच्छी तरह छूना और सहला लेना चाहते हैं। बैग से निकल कर वह पुर्जा उसके हाथ से छूटकर हम दोनों के बीच फैली उलझन की गिरफ्त में पंख फड़फड़ाते नीलकंठ सा मेज पर बैठ गया।
इस बीच टी शर्ट जींस पहने खिलंदड़े बादल छू-छुऔवल खेलते दूर चले गए। सूरज अपना धूप चश्मा उतार कर जल्द ही झिंप जाने वाली सिंदूरी आँखों से क्षितिज का मुआयना करने लगा। धूप का एक बच्चा सहमता सा दबे पांव बेसमेंट की सीढियाँ उतरता अंतिम सीढ़ी पर इस तरह बैठ गया मानों उसे क्लास से बाहर मुर्गा बन बैठने की सजा मिली हो। हमारी मुलाकात दम तोड़ने लगी। हम दोनों के गिर्द जमी अविश्वास के काई इतनी रपटीली हो चुकी थीं कि बातों के टुकड़े उनसे टकराकर बिछलते और हाल में फैली बेबस ऊब में जज्ब हो जाते धूप बच्चा सबसे निचली सीढ़ी पर ऊंघने लगा। हम बाहर आ रहे थे तब अचानक धूप बच्चा उछलकर मेरी कमीज की उपरी जेब पर आकर बैठ गया और हमारे साथ बाहर भाग आया और फुटपाथ पर रखी बेंचों पर बैठे दूसरे बच्चों के बीच कहीं गुम हो गया।
सड़क पर बारिश के पानी के छोटे-छोटे चहबच्चे आंख खोलकर हमें देखने लगे। हम उनसे पर्दा करते ऑटो स्टैंड तक आ पहुंचे जो खाली पड़ा था। मैं कोई बेमानी सी बात बोलने को हुआ पर इससे पहले उसे एक सड़क पर जाते ऑटो ने झट से निगल लिया। मैं ऑटो को दूर जाते तब तक देखता रहा जब तक वह ऑटो छोटे होते हुए पीले धब्बे से काला होता हुआ धुलिआये कागज़ पर लिखी इबारत के बीच स्याही के ढेर सारे धब्बों में कहीं खो न गया। वापसी में मुझे चहबच्चों से आंख चुराने की जरुरत नहीं थी पर वे मेरी ऒर घूरने लगे। मेरी पैंट के पायंचे जो आते समय जुड़वाँ लगते अब सौतेले भाइयों से लगने लगे।
टेरेस गार्डन पर धूप की आखिरी किरणें पाम की नोक पर आकर ठिठक गई थी और पाम के पत्तों की धार कोर झाड़कर उसे भोंथरा बना रही थी। गुलाब सर झुकाए खड़ा था और लान सिंदूरी उजाले से हाथ छुड़ाकर पूरे चाँद के साथ, रात्रि अभिसार के लिए थरथराती हुई, तैयार हो रही थी।
शायद मिटटी की सोंधी महक ने उसके आने की खबर दी होगी तभी तो आँखे बिछ गई इंतजार में *******
ReplyDeleteअब लगता है हम कालेज में खड़े लेब की ओर जा रहे हैं जहाँ कोई परख नली को पकडे ड्राप बाई ड्राप विलयन मिलाकर इशारो में पूछेगी ये फीका बैगनी कलर ठीक है****
सर जी क्या बात है ?
वाह ... बेहतरीन
ReplyDeleteटैरेस गार्डन की चिंतन से भरी प्रस्तुति में खो से गए थे हम .....बहुत उम्दा प्रस्तुति
ReplyDeleteमन हरियर कर देने वाला टैरेस गार्डन.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर है ये टैरेस गार्डन तो..........
ReplyDeleteआप ने तो हवा/फ़ूल /धूप/पानी आदि का मानवीकरण कर के यह समझा दिया कि चाहे तो व्यक्ति अपना साथी /दोस्त अपने आस पास ही इन सब में पा सकता है.
ReplyDeleteबहुत रोचक लगा.
मई की उस दोपहर नीली जींस और सलेटी टी शर्ट पहने आवारा घूमते बादलों ने सूरज की जलती आँखों पर धूप चश्मा पहना दिया और शाम कुछ पहले ही ढलने-ढलने हो गई। ठण्डी हवा के गीले झोंकों ने बताया कहीं बारिश जरुर हुई है, पर इतनी दूर कि ठंडक तो यहाँ तक किसी तरह पहुँच गई पर बारिश की सहेली मिट्टी की सोंधी गंध ने कहीं बीच में ही झोंकों का साथ छोड़ दिया। छोटे से टेरेस गार्डन पर लगे बोन्साई पाम की सुई सी पत्तियां कभी हाँ कभी ना कहती फरफराने लगीं, गुलाब अपनी मौन स्वीकृति देता अनमना सा खड़ा रहा और लान की घास सद्य संपन्न सहवास से स्वेदश्लथ, उतार-चढ़ाव का विसर्जन कर सम पर आकर गीली, अलसाई सी लेट गई थी।
ReplyDeletewaah kya suruaat hai .....
सुंदर, काव्यात्मक वर्णन!
ReplyDeleteशैली जीवंत है- बहुत संभावनाएं लिए। जारी रहें।
ReplyDeleteअक्सर लगता है कि कोई अपना,अपने पास आ रहा है, उसकी महक हम
ReplyDeleteमहसूसने लगते हैं----क्या खूब अहसास की व्याख्या की है,
बहुत सुंदर शब्द शिल्प ,गजब का कथ्य
बधाई
आग्रह है मेरे ब्लॉग का अनुसरण करें
ओ मेरी सुबह--
एक ही सांस में पढ़ती चली गई ....अब फ़ुरसत मिलते ही सहेज लूंगी...
ReplyDeleteबार-बार सुनने को ...
बहुत बढ़िया प्रस्तुति ..
ReplyDeletemnmohak prastuti ...
ReplyDeleteवाह!
ReplyDeleteयह आलेख नहीं , कविता जैसी सुकुमार है , क्या बिम्ब हैं , क्या चित्र है ! मैं स्तब्ध हूँ । मैं आज पहली बार यहॉ आई हूँ । इससे पहले मैं किसी और तथागत के यहॉ पहुँच गई थी । मानवीकरण की अद्भुत विधा है आपके पास । भगवान आपको निरन्तर यश प्रदान करते रहें ।
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