Monday, February 14, 2011

जिंदगी

जिंदगी
जीना
हो गई
रोज
चढ़ते-उतरते
सारी देह
पसीना
हो गई। 
15.06.1986               

आंखों में आंखें
आंखों में तुम
इस चक्कर में
मैं
हो
गया
गुम।       
23.06.1991

19 comments:

  1. भाई जी,
    'जिंदगी' जैसे शब्‍द की आपकी व्‍याख्‍या को नमन.
    एक छोटी सी व्‍याख्‍या, जिंदगी पर, आपको समर्पित करते हुए-

    जिंदगी
    किसी पड़ोसन का
    मांगा हुआ जेवर तो नहीं
    हमेशा डर लगा रहता है
    कहीं खो जाने का.

    -राम पटवा

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  2. राजेश जी,
    क्षणिकायें मस्त लगीं। ये जो तारीख लिखी हैं, ये इनके लिखने की तारीख हैं या कोई विशेष तिथियाँ:))

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  3. भाई राजेश जी बहुत सुंदर कविता है |बधाई

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  4. ज़िदगी की इतनी प्यारी परिभाषा पहले कभी नहीं पढ़ी।

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  5. बहुत सुंदर क्षणिकायें| धन्यवाद|

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  6. सुंदर क्षणिकाएं.... पहली क्षणिका बेमिसाल लगी....

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  7. प्रभावित करता है जिंदगी पर आपका नज़रिया.गागर में सागर जैसी इन छोटी-छोटी कविताओं की सराहनीय प्रस्तुति के लिए आभार .

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  8. वाह! सुंदर क्षणिकाएं है।
    ब्लॉग जगत में आपका स्वागत है।

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  9. वाह। क्‍या बेहतरीन क्षणिकाएं हैं। हां तारीखों का समझ नहीं आया। इसका उल्‍लेख किसलिए। वैसे मजा आ गया आपनी रचना पढकर।

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  10. छत्‍तीसगढ़ में 'पुराना चावल' बड़े मान की चीज मानी जाती है जैसे 'और पुरानी हो कर मेरी और नशीली मधुशाला' बस यही है ये तारीखें, भावों के शब्‍दों में बदल जाने की तिथियां, आभार सहित.

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  11. रचनाएं, स्‍वान्‍तः सुखाय थीं, अंतरताने (internet)/ब्‍लॉगिंग ने अपनी बात रखने का ऐसा माध्‍यम दिया, इसलिए अब यहां हैं.
    सालों बाद इन्‍हें सार्वजनिक करना ''स्‍मृतियों के बियाबां में सांझे चूल्‍हे के लिए जलावन चुनने जैसा है'' मेरे ब्‍लॉग पर पधारने और पहली-पहल पोस्‍ट पर आप सबकी टिप्‍पणियां गूंगे का गुड़ हैं. धन्‍यवाद और आभार.

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  12. राजेश जी
    बहुत सटीक अभिव्यक्ति ...आपका आभार ब्लॉग पर आकर उत्साहवर्धन के लिए

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  13. आनंद आ गया ! शुभकामनायें स्वीकार करें राजेश जी !

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  14. बहुत सुंदर क्षणिकायें| धन्यवाद....

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  15. .

    बहुत बढ़िया लगी ये प्रस्तुति ।

    गूंगे का गुड ...वाह ! ....क्या बात है !

    .

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  16. सुंदर क्षणिकाएं
    ब्लॉग जगत में आपका स्वागत है।

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