Tuesday, April 26, 2011

अपना-पराया

तुम्‍हारा कहना
फिर आना
मेरा बन गया
रोजनामा
मैंने तो बहुत
बाद में
जाना
लेकिन क्‍या जरूरी था
तुम्‍हारा
मुझे इस तरह
सूद पर सूद का
हिसाब समझाना.
10.01.1991


आंखों को मींचे
सपनों को भींचे
पत्‍थर को सींचे
क्‍या कुछ खिला है
पांवों पर चलते
हाथों को मलते
धीरे-धीरे गलते
मुझे क्‍या मिला है
फिर भी
आपको मुझसे
क्‍या गिला है.
29.06.1991

6 comments:

  1. दोनों क्षणिकाएं बहुत अच्छी लगी .लिखते रहिये ऐसे ही .बधाई

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  2. दोनों क्षणिकाएं बहुत सुन्दर.बधाई.....

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  3. 'फिर भी

    आपको मुझसे

    क्या गिला है '

    ..............................

    सुन्दर अभिव्यक्ति

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  4. सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ शानदार क्षणिकाएं! बधाई!

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  5. गागर में सागर अच्छी लगी।

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  6. तुम्‍हारा
    मुझे इस तरह
    सूद पर सूद का
    हिसाब समझाना.

    जीवन का बस ऐसा ही हिसाब होता है
    कभी सरल कभी टेड़ा जवाब होता है
    आपका निराला अंदाज़ अच्छा लगा

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