Saturday, August 24, 2013

15 अगस्‍त को एक अखबार में ''जूदेव के निधन से शोक की लहर'' के साथ छपा- ''कांग्रेसियों ने शोक जताया'', जिसमें कांग्रेस नेताओं के नाम सहित लिखा है कि उन्‍होंने ''सांसद श्री बैस के निधन पर गहरा शोक जताया है।'' अगले दिन 16 अगस्‍त को अवकाश के कारण अखबार नहीं आया, इसके बाद के दिनों में इसका खंडन/भूल सुधार मेरे देखने में नहीं आया, यदि आपने देखा हो तो कृपया सूचित करें। यदि भूल सुधार नहीं छपा है तो माना जा सकता है कि इससे सांसद श्री बैस, कांग्रेसी नेताओं और पाठकों को भी आपत्ति नहीं है, न ही अखबार ऐसी बात को कुछ खास मानते हैं, तब यह भी सोचना होगा कि अखबारों की भूमिका/उत्‍तरदायित्‍व, पाठकों/खुद अखबार की नजरों में अब क्‍या और कितनी गंभीर है।

Monday, May 27, 2013

आग्रह : आदेश

भाई रमाकांत जी के ब्लाग "आभा - द स्पलेंडर" की रचना "आइना" पर टिप्पणी स्वरुप मैंने कई साल पहले पढ़ी एक कविता की दो पंक्तियाँ लिख दी थीं। मुझे उनकी इस कविता पर कमेन्ट के लिए इससे बेहतर कुछ लगा ही नहीं,उन्हें ये पंक्तियाँ इतनी पसंद आई कि उनके आग्रह की चाशनी में डूबा आदेश हुआ कि इस पूरी रचना को अपने ब्लाग पर प्रकाशित कर ब्लाग जगत के मित्रों-बंधुओं से साझा करूँ।

यह कविता काफी अरसा पहले पढ़ी थी, जहाँ तक मुझे स्मरण है- कादम्बिनी के 1980 के किसी अंक में। कल देर रात तक याद करने की कोशिश करता रहा 2-3 घंटों की दिमागी कसरत के बाद रचना की सारी पंक्तियाँ याद आ गई पर अफसोस कि रचनाकार का नाम तमाम कोशिशों के बाद याद न कर सका एक अरसे लगभग 33 साल पहले पढ़ी इस रचना का साझा आपसे कर रहा हूँ।

उस बिसर गए रचियता से क्षमायाचना और आभार सहित।
आशा है आपको भी पसंद आएगी। पूरी पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-

रूप मरकत सा पिघलता है बताओ क्या करें,
अब न दर्पण में सम्हलता है बताओ क्या करें।

शाम क़त्ल हुआ सूरज का घाटियों के पीछे,
दाग पुतलियों पर मिलता है बताओ क्या करें।

सुबह की किरणें चुरा कर ले गईं तारकों की टोकरी,
नाम चूनर का उछलता है बताओ क्या करें।

खुद भटकते हैं डगर आरोप लगते हैं मगर,
आपका मौन छलता है बताओ क्या करें।

विनम्र अनुरोध : यदि कोई ब्लागर मित्र इस रचनाकार का नाम याद कर सकें तो मुझे अवश्य बताएं में आभारी रहूँगा, कवि को आभार व्यक्त कर उनकी रचना का उपयोग करने के ऋण से मुक्त हो सकूँगा. समर्पित, भूले हुए अज्ञात रचयिता को ............

सूरज, किरणें, घाटियाँ, टोकरी, चूनर, पलक, मौन
भाई रमाकांत जी के ब्लाग "आभा - द स्पलेंडर " की रचना" आइना" पर टिपण्णी स्वरुप मैनें कई साल पढ़ी एक कविता की दो पंक्तियाँ लिख दी थीं। मुझे उनकी इस कविता पर टिपण्णी के लिए इससे बेहतर कुछ सूझा ही नहीं। .,उन्हें ये पंक्तियाँ इतनी पसंद आई कि उनके आग्रह की चाशनी में डूबा आदेश हुआ कि  इस पूरी रचना को अपने ब्लाग पर प्रकाशित कर ब्लाग जगत के मित्रों-बंधुओं से साझा करूँ।यह कविता काफी अरसा पहले पढ़ी थी जहाँ तक मुझे स्मरण है - कादम्बिनी के 1980 के किसी अंक में कल पूरी रात याद  करने की कोशिश करता रहा 2-3      घंटों  की दिमागी कसरत के बाद रचना की सारी पंक्तियाँ याद  आ गई पर इस बात का दुःख रहा  कि  रचनाकार का नाम तमाम कोशिशों के बाद याद  न कर सका .आप सभी से एक अरसे लगभग 33 साल पहले पढ़ी इस रचना का साझा कर रहा हूँ ,उस बिसर गए रचियता से क्षमायाचना और आभार सहित। आशा है आपको भी पसंद आएगी .

पूरी पंक्तियाँ इस प्रकार हैं- 

रूप मरकत सा पिघलता है बताओ क्या करें,
अब न दर्पण में सम्हलता है बताओ  क्या करें।
 
शाम क़त्ल हुआ सूरज का घाटियों के पीछे ,

दाग पुतलियों पर मिलता है बताओ क्या करें।
 
सुबह की किरणें चुरा कर ले गईं तारकों  की टोकरी ,

नाम चूनर का उछलता है बताओ क्या करे।

खुद भटकते हैं डगर आरोप लगते  हैं मगर,
 
आपका मौन छलता है बताओ क्या करें।



* विनम्र अनुरोध : यदि कोई  ब्लागर मित्र इस  रचनाकार का नाम याद  कर सकें तो मुझे अवश्य बताएं में  आभारी रहूँगा,उन्हें आभार व्यक्त कर उनकी रचना का उपयोग करने के ऋण से मुक्त हो सकूँगा। 


समर्पित भूले हुए अज्ञात रचयिता को .............

Sunday, May 5, 2013

टैरेस गार्डन

मई की उस दोपहर नीली जींस और सलेटी टी शर्ट पहने आवारा घूमते बादलों ने सूरज की जलती आँखों पर धूप चश्मा पहना दिया और शाम कुछ पहले ही ढलने-ढलने हो गई। ठण्डी हवा के गीले झोंकों ने बताया कहीं बारिश जरुर हुई है, पर इतनी दूर कि ठंडक तो यहाँ तक किसी तरह पहुँच गई पर बारिश की सहेली मिट्टी की सोंधी गंध ने कहीं बीच में ही झोंकों का साथ छोड़ दिया। छोटे से टेरेस गार्डन पर लगे बोन्साई पाम की सुई सी पत्तियां कभी हाँ कभी ना कहती फरफराने लगीं, गुलाब अपनी मौन स्वीकृति देता अनमना सा खड़ा रहा और लान की घास सद्य संपन्न सहवास से स्वेदश्लथ, उतार-चढ़ाव का विसर्जन कर सम पर आकर गीली, अलसाई सी लेट गई थी।

नीचे उतर कर अगले मोड़ से मैंने उस रास्ते पर आंख लगा दीं जिधर से वह आने को थी। इंतज़ार थोड़ा पहले शुरू हो गया। उसके आने में अभी समय था पर चाहता था कि दूर से ही उसे देख लूँ ताकि कुछ अधिक देर तक उसे देख सकूँ। मुलाकात से पहले और बाद में भी, वह अगले मोड़ पर जाकर सड़क के साथ घुल न जाये। वैसे भी इन दिनों करने को कुछ नहीं था, ज्यादातर समय घर पर ही रहने की ऊब को किताब पढ़ने से पैदा हुई ऊब के साथ घिस कर पतला और तरल कर देने की योजना बनाते बीतता। ऐसे में समय से पहले किसी का इंतज़ार ऊबने को कितना घिस सकता है, गुनने की कोशिश में गुम था।

वह दूर दिखाई दी, धुंधलाई सी और फिर साफ होती गई जैसे कैमरे को धीरे-धीरे फोकस किया जा रहा हो। सामने आकर थोड़ी देर मेरी आँखों में सीधे देखने की बजाय मेरे सर के ऊपर देखती रही। हम दोनों किसी मज़बूरी से बंधे रेस्तरां की सीढियाँ उतरने लगे। यह बेसमेंट में था और इस समय वह खाली रहता था। छत पर एक फानूस ऊँघता सा जल रहा था। कांपती और ऊबी सी रौशनी की पियरायी पुरानी चादर बमुश्किल हाल के बिचले फर्श पर गिर कर किसी बेजान बिल्‍ली सी पसर गई थी। दीवार के किनारे-किनारे चलते हुए हम सबसे कोने की मेज की तरफ जा रहे थे। दीवार पर पड़ती हमारी परछाईं से लगता दो आधे आदमी चल रहे एक फर्श पर रपटता और दूसरा दीवार पर फिसलता हुआ।

कोने की मेज पर चारखाने वाली मेजपोश शतरंज की बिसात की तरह बिछी थी, जिस पर सालन और शोरबे के सूखे दाग, मोहरों से तैनात हमारा ही इन्तजार कर रहे थे। बासी खाने की गंध हमारे चेहरों के बीच आकर खड़ी हो गई। हमारे शरीर की गंध उसे पार करने की जद्दोजहद से थककर टेबल पर गिर पड़ी। हॉल में इतनी रोशनी नहीं थी कि वह बाहर झांक सके और बाहर की कुम्‍हलाई रौशनी दरवाजे पर भीतर आने न आने के असमंजस में चौखट पर खड़ी थी। उंना सा अँधेरा दोनों के बीच भिंचकर मुश्किल से साँस ले पा रहा था।

तुम यहाँ अक्सर आते हो, नहीं, सिर्फ तब जब अकेला रहना चाहता हूँ।

वेटर काफी के प्याले रख गया काफी की गन्ध थोड़ी देर लड़खड़ाती रही फिर उसने खाने की बासी गंध को धीरे-धीरे ऊपर को धकेलना शुरू किया। खाने गंध की मक्खियाँ अब हमारे सिरों मंडराने लगी। उसकी उँगलिया पहले मेजपोश पर वह कुछ लिखने की सी कोशिश करने लगीं शायद, जो वह कहना चाहती थी। लेकिन अदिख लिखाई ने जल्दी ही उँगलियों का साथ छोड़ दिया और वे टेबल को थपथपाने और मेरी नसों पर दस्तक देने लगी। अनमनी सी होकर उसने सामने बिछी शतरंज पर पहली चाल चली- तुम्हें यह सब नहीं लिखना था।

मैंने सर को हल्की सी जुम्बिश दी जिसका मतलब कुछ भी हो सकता था हाँ भी और न भी और शायद दोनों में से कुछ भी नहीं। कई बार हम बात को सुनकर नहीं सुनने जैसा करते हैं। इस उम्मीद से कि बोलने वाला दरवाजे की सेफ्टी चेन हटाकर थोड़ी सी और जगह बनाये और बातों को अन्दर आने दे। सड़क पर बारिश धीमी हो गई थी। अब तेज हवा उसका पल्‍लू पकड़ कर उसे बार-बार मोड़ देती और उसकी लय बदल जाती, जैसे कोई म्यूजिक कम्पोजर अपनी छोटी सी छड़ी से संगीत की लय बदल रहा हो। हमारी आँखें खुली थीं पर काफी से उठती भाप ने उसे इस तरह पनिया दिया था कि हम एक दूसरे को देख नहीं पा लगा ऐसी कार में बैठे हैं, जिसके वाइपर ने विंड स्क्रीन का साथ छोड़ दिया हो।

इसी बीच हवा ने रुख बदला और खिड़की के पल्ले आपस में बात करने लगे। दरवाजा उनकी बात सुनते-सुनते, बीच में कभी धीरे से सर हिला देता। हवा के बदले रुख से सड़क पर सर धुनती बारिश की एक बूंद छज्जे से उड़ती हुई खिड़की के धुंधलाए कांच को खरोचती नीचे उतर गई। शीशे का चेहरा दो हिस्सों में बंट गया और बीच की दरार से वह सब कुछ दिखने लगा जिससे हम भाग कर अन्दर आए थे। उसने अपना हैण्ड बैग खोला और उसकी उँगलियाँ देर तक कुछ टटोलती रही। कभी लगता कि वह जो निकालने जा रही है वह उसकी पकड़ में है पर वह नए सिरे से बैग के खोखल के अन्दर उँगलियाँ घुमाने लगती। अक्सर हम देर से हमारे पास रखी चीज़ को आजाद करने से पहले आखिरी बार अच्छी तरह छूना और सहला लेना चाहते हैं। बैग से निकल कर वह पुर्जा उसके हाथ से छूटकर हम दोनों के बीच फैली उलझन की गिरफ्त में पंख फड़फड़ाते नीलकंठ सा मेज पर बैठ गया।

इस बीच टी शर्ट जींस पहने खिलंदड़े बादल छू-छुऔवल खेलते दूर चले गए। सूरज अपना धूप चश्मा उतार कर जल्द ही झिंप जाने वाली सिंदूरी आँखों से क्षितिज का मुआयना करने लगा। धूप का एक बच्चा सहमता सा दबे पांव बेसमेंट की सीढियाँ उतरता अंतिम सीढ़ी पर इस तरह बैठ गया मानों उसे क्लास से बाहर मुर्गा बन बैठने की सजा मिली हो। हमारी मुलाकात दम तोड़ने लगी। हम दोनों के गिर्द जमी अविश्वास के काई इतनी रपटीली हो चुकी थीं कि बातों के टुकड़े उनसे टकराकर बिछलते और हाल में फैली बेबस ऊब में जज्ब हो जाते धूप बच्चा सबसे निचली सीढ़ी पर ऊंघने लगा। हम बाहर आ रहे थे तब अचानक धूप बच्चा उछलकर मेरी कमीज की उपरी जेब पर आकर बैठ गया और हमारे साथ बाहर भाग आया और फुटपाथ पर रखी बेंचों पर बैठे दूसरे बच्चों के बीच कहीं गुम हो गया।

सड़क पर बारिश के पानी के छोटे-छोटे चहबच्चे आंख खोलकर हमें देखने लगे। हम उनसे पर्दा करते ऑटो स्टैंड तक आ पहुंचे जो खाली पड़ा था। मैं कोई बेमानी सी बात बोलने को हुआ पर इससे पहले उसे एक सड़क पर जाते ऑटो ने झट से निगल लिया। मैं ऑटो को दूर जाते तब तक देखता रहा जब तक वह ऑटो छोटे होते हुए पीले धब्‍बे से काला होता हुआ धुलिआये कागज़ पर लिखी इबारत के बीच स्याही के ढेर सारे धब्बों में कहीं खो न गया। वापसी में मुझे चहबच्चों से आंख चुराने की जरुरत नहीं थी पर वे मेरी ऒर घूरने लगे। मेरी पैंट के पायंचे जो आते समय जुड़वाँ लगते अब सौतेले भाइयों से लगने लगे।

टेरेस गार्डन पर धूप की आखिरी किरणें पाम की नोक पर आकर ठिठक गई थी और पाम के पत्तों की धार कोर झाड़कर उसे भोंथरा बना रही थी। गुलाब सर झुकाए खड़ा था और लान सिंदूरी उजाले से हाथ छुड़ाकर पूरे चाँद के साथ, रात्रि अभिसार के लिए थरथराती हुई, तैयार हो रही थी।

Tuesday, April 30, 2013

बरास्ते आँखों के

अझिप आँखों से देखता हूँ सपने
बंद आँखों से साफ-साफ तुम्हें
तुम्हारे उस चेहरे को
जिसे तुम कभी नहीं देख पाती
अपनी आँखों से
चेहरे को आँखों से
आँखों से चेहरे को
बहुत देख चुके हम
अब देखने दो
आँखों-आँखों में
एक-दूसरे का अक्स
सोते-जागते
खुली-बंद आँखों से
सुबह से शाम तक
हर वक़्त

जरुरत ब्लॉग के सृजनकर्ता बाबू साहब रमाकांत सिंह को समर्पित

Sunday, February 24, 2013

दिल्ली दमन दामिनी

नन्हें-नन्हें कदमों से चलते
छोटे-छोटे मासूम ख्वाब
आते हैं दिल वालों(?) की दिल्ली में
पूरे हिंदुस्तान से
इस बार आया था
बलिया के किसी गाँव से

ख्वाबों की दिल्ली
ख्वाब .......................
अपनी एक पहचान और पता ढूंढने
अक्षर के धाम में कुछ मांगने
क़ुतुब मीनार को छूकर देखने
संसद की दीर्घा में बैठने
और इंडिया गेट पर शहीदों को याद करने
जिन्होंने अपना आज दिया
हमारे बेहतर कल के लिए

अक्सर टूट जाते हैं कभी काले शीशे वाली बसों में
बड़ी सी मोटरकार की पिछली सीट पर
कालेज के कैम्पस में
और कोलतार से काली चिकनी सडकों पर
लाल पीली हरी बत्तियों की
आँखों के सामने
तब किसी दामिनी के ख्वाब सवाल करते हैं
पूरे हिंदुस्तान से
गुस्से और हताशा से बंधी मुट्ठियों में
हजारों-हज़ार
मोम बत्तियां थामे
क्या कोई सुनेगा?
क्या कोई सुनेगा?
क्या कोई सुनेगा?