Saturday, March 31, 2012

... वह

महसूस करने की जमीन पर थोड़ी-बहुत नमी अब भी शेष है, लेकिन उस पर चिन्ता/चिन्तजन के पत्थर इस तरह लदे हैं कि कुछ कहने या लिख पाने की धारा पूर्व की भांति किसी लघु उत्‍स्फोट के साथ गेसियर की तरह नहीं फूटती वरन इन पत्थरों के बीच किसी उपेक्षित से दरार से रिसने लगती है। पता नहीं यह विस्फोट है या रिसना ...

एक लंबे अरसे बाद कुछ दिनों पूर्व गृहग्राम जाना हुआ। लोगों से मिलते-जुलते और दुकानों से भर गई सड़कों के दोनों किनारों के बीच स्मृतियों की पतली होती जा रही गलियों में से गुजरते हुए चौक के पास एक दृश्य पर निगाह रुकी-
कुछ वर्ष पूर्व की प्राकृतिक सुंदरता भरी कन्या, पांवों के उपर टंगी मुचड़ी सी साड़ी और बोसीदा हालत के साथ, यौवन के समक्ष प्रकट संक्रमण काल में प्रवेश करते, अपने सद्य गत-सौंदर्य को संभालने के असफल प्रयास में, अपनी 4-5 वर्षीय वर्नाकुलर कान्वेंटगामिनी कन्या की उंगली थामे, सड़क के किनारे के ठेले से कुछ सौदा-सुलुफ कर रही थी ...

कुछ पुराने दृश्य याद आए। 7-8 वर्ष पूर्व जब यह गत सौंदर्या सायकल पर कॉलेज के लिए निकलती तब अपने सौंदर्य का अहसास प्रतिपल, पूरे रास्ते उसे जागृत और सजग रखता और सायकल पैडल पर उसके पांवों के दबाव से नहीं उसके अपने सौंदर्य के गुरूर से गतिमान रहती।

फौरी और सटीक टिप्पणियों के लिए जाने जाते, वे अक्सर कहते- गीतांजली एक्सप्रेस जा रही है। इस रूपक की कैफियत पर बताते कि जैसे गीतांजली एक्सप्रेस अपनी गति के कारण रेल पांत के किनारे पड़ी हल्की-फुल्की चीजों के साथ-साथ गिट्‌टी के छोटे-छोटे टुकड़ों को भी उड़ाती चलती है उसके सायकिल के गुजरने पर सड़क के दोनों किनारों पर खड़े आशिक छिटक कर दूर जा गिरते हैं। उनकी इस कैफियत पर उस समय जो लाइनें याद आईं, बकौल दुष्यंत कुमार-
तुम किसी रेलगाड़ी सी गुजरती हो
मैं किसी पुल सा थरथराता हूं
आज जब सड़क किनारे के ठेले से सौदा-सुलुफ करती उस सद्य गत सौंदर्या को याद करता हूं तो उस समय जो लाइन दिमाग में आई वह थी-
''हाथ ठेले से हाफ डजन केले खरीदती वह''
यह तो थी फौरी टिप्पणी। बाद में विचार करने पर जब इन दो स्थितियों पर लिखना चाहा तो वह कुछ इस प्रकार लिखा गया-

पुनः दृश्य 1
तुम किसी रेलगाड़ी सी गुजरती हो
मैं किसी पुल सा थरथराता हूं

दृश्य 2
गुजरते वक्त के साथ-साथ, धीरे-धीरे तुम मालगाड़ी बनती जाती हो। सब्जी, अचार, मुरब्बे और पापड़ बनाते, पति, बच्चे, ननद, जिठानी और सास-ससुर के ढेर तुम पर लदते जाते हैं और इस ओवर लोडिंग से मैं किसी कोयले के टुकड़े सा तुमसे अलग छिटक कर रेल पांत के किनारे जा गिरता हूं, जहां कोयला बीनने वाले मुझे बेच आते हैं, जय जगदम्बा स्वीट्‌स और जलपान गृह में और मैं गुलाब जामुन के शीरे, पापड़ी सेव के तेल और समोसे के मसाले को आंच देते-देते जल कर मैं ख्‍वार होता जाता हूं और तुम किसी बड़े से जंक्शन के आउटर सिग्नल पर लंबी-लंबी सीटियां बजाती हांफती खड़ी रहती हो

मन में 9 मार्च 2001
कागज पर 13 मार्च 2001
अंत में शीर्षक ''यादों के बियाबां में जलावन चुनती वह''

यह आलेख श्री संजीव तिवारी के ब्‍लाग आरंभ पर प्रकाशित हो चुका है।